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२५८ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
(८) 'अनुप्रतिगणश्च' (१।४।४१)- अनु और प्रति से युक्त गृ-धातु ( क्रयादि, प०) का प्रयोग होने पर पूर्व क्रिया के कर्ता को सम्प्रदान कहते हैं । अनुगरण और प्रतिगरण वस्तुतः श्रौतयाग में प्रयुक्त होनेवाले शब्द हैं । यहाँ भी दो वाक्य होते हैंपहले होता शंसन ( ऋचाओं का पाठ ) करता है, दूसरा व्यक्ति उसे प्रोत्साहित करता है। इसमें पूर्ववाक्य की क्रिया का कर्ता सम्प्रदान है-होत्रेऽनुगृणाति, प्रतिगृणाति । पूर्ववाक्य में शंसन-क्रिया है, उसका कर्ता होता है। शंसनकर्ता के प्रोत्साहन के अर्थ में अनुगर-प्रतिगर क्रियाओं का प्रयोग होता है। इसलिए नागेश धात्वर्थनिरूपण करते हैं-शंसन के विषय में हर्षानुकूल व्यापार से लक्षित होनेवाला प्रोत्साहन धात्वर्थ है ( ल० म०, उपरिवत् )। शंसन का आश्रय ( होता इत्यादि ) सम्प्रदान है। __ हेलाराज कहते हैं कि यहाँ होतारं शंसनेन (शंसन्तं ? ) प्रोत्साहयति' इस रूप में वाक्यार्थ करने पर होता' को कर्मसंज्ञा प्राप्त थी, उसे रोक कर सम्प्रदान हुआ है। इन सभी सूत्रों में विशेष-विवक्षा के अभाव में षष्ठी तो प्राप्त है ही जिसके अपवादस्वरूप सम्प्रदान-विधान है।
(९) परिक्रयणे सम्प्रदानमन्यतरस्याम्' (१।४।४४)-इस सूत्र में करण और सम्प्रदान का विकल्प है। परिक्रयण का अर्थ है-वेतनादि से किसी को निश्चित समय के लिए स्वीकार करना, सदा के लिए क्रय नहीं करता। जब नियत समय के लिए (१ वर्ष, ३० वर्ष इत्यादि ) कुछ वेतन देकर किसी को सेवक के रूप में स्वीकार किया जाय तो वही परिक्रयण है। परि=सामीप्य । क्रय = सदा के लिए स्वीकार करना' । परिक्रयण का अर्थ होने पर जो साधकतम कारक हो वह सम्प्रदान या करण भी है; जैसे-'शताय परिक्रीतः, शतेन वा' ( सौ रुपयों से या के लिए वह नौकरी किये हुए है )। यहां शत का व्यापार है दान । सौ रुपयों को वह अपनी शक्ति प्रदान कर रहा है । नागेश इस सम्प्रदान के प्रति उपेक्षाभाव दिखलाते हैं कि करण का ही सम्प्रदान के रूप में भान होता है।
१. 'परिशब्दः सामीप्यं द्योतयति । क्रयो नामात्यन्तिक स्वीकरणम् । नियतकालं तु तस्य समीपमिति भावः' ।
-श० को० २, पृ० १२७ 'तच्च नियतकालं ततो न्यूनत्वात्' ।
-प्रौढमनोरमा, पृ० ५२३ २. ल. श. शे०, पृ० ४४५ ।