Book Title: Sanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Author(s): Umashankar Sharma
Publisher: Chaukhamba Surbharti Prakashan

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Page 302
________________ २८२ संस्कृत-व्याकरण में कारक तस्वानुशीलन है । तथापि 'कूपादन्धं वारयति' के विषय में वे अलग से कहते हैं कि अभिमुख- देश में गमन करने के कारण कूप-पतन अन्धे का इच्छा-विषय ईप्सित ) है | अन्धा उस दिशा में बढ़ता जाता है और यद्यपि उधर स्थित कूप की सत्ता का उसे पता नहीं है तथापि कूप - पतन में परिणत होने वाला उसका 'उस दिशा में चलते जाना' ही इच्छा का विषय है । सारांश यह है कि साधन ( गमन ) अभीष्ट है तो तत्सम्बद्ध साध्य या फल ( कूप-पतन ) भी अभीष्ट ही है । यहाँ नागेश के पूर्ववर्ती गदाधर का कहना है कि यद्यपि कूप-गमन इच्छा-विषय नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि ज्ञान हो जाने पर अन्धा कभी उधर जा ही नहीं सकता, तथापि अभिमुख- देश में गमन के कारण कूप-गमन भी इच्छा विषय है । अन्ततः कूपादि- देश में अन्धे की क्रिया से उत्पन्न संयोग इच्छा का विषय होता है । यहाँ तक दोनों में मतसाम्य है (व्यु० वा०, पृ० २५६ ) | किन्तु इसी के आधार पर गदाधर ने जो 'मित्रं विषाद् वारयति' की व्याख्या की है वह नागेश को अमान्य है । गदाधर कहते हैं कि जहाँ चैत्रादि पुरुष अपने भोजन से अभिन्न रूप में विष खा रहे हों (अन्न विष-मिश्रित हो ), अपनी इच्छा से केवल विष नहीं खाएँ तो ऐसे स्थानों में इस भोजन व्यापार को रोकने वाले कर्ता का यह प्रयोग नहीं होता - विषाद् वारयति । शुद्ध प्रयोग होगा -- 'सविषाद् भोजनात् वारयति । प्रथम प्रयोग के निवारणार्थं ही सूत्रकार ने 'ईप्सित' में सन् प्रत्यय का प्रयोग किया है । सविष अन्न में अन्न इच्छाविषय है, विष नहीं । आत्महत्या के अतिरिक्त कभी भी विष इच्छा विषय नहीं होता । आत्महत्या का स्थल यहाँ नहीं है ' । गदाधर की धारणा भ्रममूलक है, क्योंकि जिस प्रकार अभिमुख देश गमन के कारण कूपगमन ईप्सित है उसी प्रकार भक्ष्य के रूप में प्रतीयमान होने के कारण विष भी इच्छा का विषय हो सकता है । भले ही विष विषरूप में इच्छाविषय न हो, किन्तु भक्ष्यरूप में ( भक्ष्य से मिश्रित होने के कारण ) तो वह अवश्य ही इच्छा का विषय है । अतएव 'विषाद् वारयति' प्रयोग करने में कोई आपत्ति नहीं । यहाँ स्मरणीय है कि जब जीवन से ऊब कर कोई व्यक्ति स्वेच्छा से आत्मघात के उद्देश्य से शुद्ध विष का भक्षण करता हो तब विष अवश्य ही ईप्सित है और इसके वारण में गदाधर को भी 'विषाद् वारयति' के प्रयोग पर आपत्ति नहीं होगी । ( ४ ) अन्तधौ येनादर्शनमिच्छति ( १/४/२८ ) - अन्तधि का अर्थ है - व्यवधान, छिपना । यदि व्यवधान का अर्थ हो तो जिस कर्ता के द्वारा अपने दर्शन का निषेध कोई पुरुष चाहता है उसे ( कर्ता को ) भी अपादान कहते हैं । 'येन' शब्द में कर्तरि - १. "यत्र चैत्रादेर्नान्तरीयकतया विषभोजनादिकं, न तु स्वेच्छातस्तत्र तंद्भोजनविरोधव्यापारकर्तरि 'चैत्रं विषाद् वारयति' इति न प्रयोगः, अपितु 'सविषाद् वारयति' इत्यादिरेव । तत्र पूर्व प्रयोगवारणाय सूत्रकृता ईप्सित इत्यनेन सम्प्रत्ययेनेच्छोपादानात्" । - व्यु० वा०, पृ० २५७ २. ल० म० पु० १२९६ ।

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