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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्वानुशीलन
व्यापकाधार में सम्बन्ध की साक्षात् सत्ता होती है, जब कि औपश्लेषिक में अवयव में स्थित संयोग-सम्बन्ध का अवयवी पर आरोप होता है। वृक्ष के एकदेश में वृक्षत्व नहीं होता, वह पूरे वृक्ष में ही होता है किन्तु 'वृक्षे वानरः तिष्ठति' में वृक्ष में अधिकरणता का भान होता है । यहाँ वास्तव में एकदेश-गत आधारत्व का वृक्ष में आरोप के द्वारा बोध होता है, इसीलिए यह गौण है। वैषयिक आधार के उदाहरण 'खे शकुनयः' में भी आकाशत्व से विशिष्ट सम्पूर्ण ( आकाश ) में अधिकरणत्व की प्रतीति नहीं होती है, अतः वह भी गौणाधार ही है। व्यापकाधार के उदाहरण 'दध्नि सपि:' में दधित्वविशिष्ट ( दधि ) में ही अधिकरणत्व की प्रतीति होती है जिससे आरोप के बिना ही अधिकरणत्व के अन्वय का बोध होता है। अतः इसकी मुख्यता निर्विवाद है । यह दूसरी बात है कि स्वरितत्व-प्रतिज्ञा के कारण गौणाधारों में भी सप्तमी की शक्ति रहती है।
(२) औपश्लेषिक अधिकरण-यह उपश्लेष शब्द से सम्बद्ध होने के कारण सामीप्यगत सम्बन्ध के द्वारा उत्पन्न आधार के अर्थ में आता है । इस अर्थ का समर्थन भाष्य के उक्त तीनों प्रसंगों में होता है। तदनुसार आधार और आधेय में सामीपिक सम्बन्ध होने से यह अधिकरण होता है, जैसे-इको यणचि । किन्तु इस शाब्दिक अर्थ में औपश्लेषिक अधिकरण का ग्रहण करने पर 'कटे आस्ते' इत्यादि उदाहरणों की उपपत्ति नहीं होगी। इसलिए इसका व्युत्पत्तिनिमित्त अर्थ छोड़कर प्रवृत्तिनिमित्त अर्थ ग्रहण करने की आवश्यकता है ।
हेलाराज के शब्दों में हम देख चुके हैं कि एक आधार ऐसा भी होता है जहाँ कतिपय अवयवों की ही व्याप्ति होती है, जिसके उदाहरण में 'कटे आस्ते' दिया गया है। इसी से इसके दूसरे लक्षण का आभास मिल सकता है । नागेश का कथन है कि आधेय के द्वारा जब आधार के कुछ ही अवयवों को व्याप्त किया जाय तो वह भी उपश्लेष ही कहलाता है, ऐसे उपश्लेष के द्वारा निष्पन्न अधिकरण औपश्लेषिक हैं । चटाई के कुछ अवयवों को अर्थात् एकदेश को ही आधेय ( बैठनेवाला ) व्याप्त करता है। अतः चटाई औपश्लेषिक अधिकरण है। इस अर्थ में भी उपश्लेष की व्युत्पत्ति करने का प्रयास हुआ है । श्लेष का अर्थ सर्वाधार की व्याप्ति के रूप में मुख्य आधार करें और इसके समीप ( मिलता-जुलता, प्रायः वैसा ही किन्तु कम अवयवों को व्याप्त
१.५० ल० म० ( पृ० १८८ ) में कैयट द्वारा दिये गये औपश्लेषिक अधिकरण के 'कटे आस्ते' उदाहरण का खण्डन नागेश ने उक्त भाष्य के विरोध के ही कारण किया है तथा इसे वैषयिक अधिकरण के अन्तर्गत रखा है। किन्तु नागेश का यह विचार अत्यन्त प्राथमिक तथा भाष्य के प्रति गाढ़भक्ति के कारण निष्पन्न प्रतीत होता है, जिसका निराकरण उन्होंने लघुमंजूषा तथा शब्देन्दुशेखर में भी किया है।
२. द्रष्टव्य (ल० म०, पृ० १३२६ )-'यत्किञ्चिदवयवावच्छेदेनाधारस्याधेयेन व्याप्तिरप्युपश्लेषः' । यथा-कटे आस्ते।