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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्वानुशीलन प्रश्न है कि जब आधार का अर्थ आश्रय है तब वह या तो संयोग-सम्बन्ध से होगा या समवाय से । शिष्य का गुरु के साथ इनमें कोई सम्बन्ध नहीं है, तब गुरु अधिकरण कैसे हुआ ? उत्तर है कि जिसके अधीन जिसकी स्थिति होती है वह संयोग या समवाय के बिना भी उसका आश्रय होता है। राजा के अधीन पुरुष की स्थिति है तो राजा उसका आश्रय है । राजा के साथ पुरुष का न तो संयोग है, न समवाय किन्तु तदधीन स्थिति के कारण लोक में व्यवहार होता है-राजाश्रयः पुरुषः ( वह पुरुष जिसका आश्रय राजा है )। उसी प्रकार शिष्यों की स्थिति गुरु के अधीन है, इसलिए गुरु का आश्रयत्व सर्वथा उपपन्न है ( न्यास, वहीं )।
नव्यव्याकरण में सामीप्य, संयोग तथा समवाय-इन तीनों से भिन्न सम्बन्ध को वैषयिक अधिकरण का नियामक माना गया है जैसे- 'खे शकुनयः' । आकाश जो अमूर्त तथा व्यापक द्रव्य है, उसमें अवयवों का अभाव होने के कारण न तो सभी अवयवों को व्याप्त करने वाला व्यापक अधिकरण होगा, न ही कुछ अवयवों को व्याप्त करनेवाला औपश्लेषिक अधिकरण । कल्पित देश-भाग होने से वैषयिक अधिकरण ही शरण है । परमलघुमञ्जूषा में नागेश इसी आधार पर 'जले सन्ति मत्स्याः ' को वैषयिक का उदाहरण रखते हैं किन्तु वस्तुतः यहाँ संयोग-सम्बन्ध है । जल मूर्त है जिसके एकदेश में मत्स्यों की स्थिति है । यह एक दूसरा प्रश्न है कि उसके अवयव नहीं हैं, किन्तु देशविशेष के आश्रयवश उसके विभागों की कल्पना हो सकती है जिससे इसे औपश्लेषिक मानना अधिक संगत होगा । तथापि आश्रयाश्रयिभाव-रूप विषयता-सम्बन्ध से इसका अन्तर्भाव वैषयिक अधिकरण में किया जा सकता है।
लघुमञ्जूषा में नागेश की स्थिति सुधर जाती है। वे कहते हैं कि अप्राप्तिपूर्वक प्राप्ति के रूप में जो संयोग-सम्बन्ध है उससे तथा समवाय से भिन्न सम्बन्ध से जो अधिकरण होता है वही वैषयिक है, जैसे- 'खे शकुनयः, मोक्षे इच्छास्ति'। यह पिछला उदाहरण सर्वश्रेष्ठ तथा निर्विवाद है । चूंकि सभी इच्छाएँ सविषय होती हैं, अत: यहां इच्छा में मोक्ष विषयता-सम्बन्ध से अन्वित होता है।
रामतर्कवागीश ने विषय के निम्नांकित भेद किये हैं(१) अनन्यत्र भाव ( अविनाभाव-सम्बन्ध ) यथा-'आकाशे शब्दो जायते' ।
(२) बोध्य पदार्थ यथा-'धर्मे वेदाः प्रमाणम्' । धर्म और वेद में बोध्य-बोधकभाव है।
( ३ ) आश्रयणीय यथा-'तीर्थे वसति' । तीर्थ और उसके निवासी में आश्रयाश्रयि-भाव है।
(४) उपस्थानीय ( उपास्य ) यथा-'गुरो वसति शिष्यः' । गुरु तथा शिष्य के बीच उपास्योपासक-भाव है । इस प्रकार इन सभी में विषयता-सम्बन्ध है।'
१. तुलनीय-प्रक्रिया-कौमुदी ( प्रसाद-टीका ), पृ० ४५५ । २. 'अप्राप्तयोस्तु या प्राप्तिः सैव संयोग ईरितः'। -भाषापरि०, का० ११६ ३. गुरुपद हाल्दार, व्या० द० इति०, पृ० ३२८ ।