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अधिकरण-कारक
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करने वाला ) विद्यमान आधार उपश्लेष है-ऐसा कहा जा सकता है । इसी से गंगानदी के एकदेश में तैरती हुई गायों के लिए 'गङ्गायां गाव:' का तथा कुएँ के एक भाग में गर्गकुल के स्थित रहने पर 'कूपे गर्गकुलम्' का प्रयोग होता है । इस उदाहरण में तथा 'गङ्गावां घोषः'२ इत्यादि में पूर्वोक्त अर्थ ( सामीप्य ) में भी इस अधिकरण की उपपत्ति हो सकती है, किन्तु इस दूसरे लक्षण में अधिक व्यापकता है--सामीपिक सम्बन्ध हो या आधार के अन्तर्गत ही आधेय हो, दोनों स्थितियों में यह लक्षण संघटित होता है । निष्कर्षतः औपश्लेषिक अधिकरण सामीप्य या संयोग, किसी भी सम्बन्ध से हो सकता है।
उपश्लेष का अर्थ संयोग लेने पर यह आपत्ति हो सकती है कि 'वटे गाव: शेरते', 'गुरौ वसति' इत्यादि उदाहरणों में संयोगाभाव के कारण औपश्लेषिक अधिकरण अनुपपन्न हो जायगा। किन्तु यह निःसार आशंका है। संयोग का अर्थ और भी व्यापक है--गौ से संयुक्त देश का संयोग भी संयोग ही है। वट में निश्चय ही इस प्रकार का संयोग है । इसी प्रकार 'इको यणचि' में इक् के द्वारा निरूपित कालिक सामीप्यरूप संयोग की सत्ता है ।
( ३ ) वैषयिक अधिकरण-विषय-सम्बन्ध से होने वाला अधिकरण वैषयिक है। 'विषय' के अर्थ को लेकर प्राचीन और नवीन वैयाकरणों में मतभेद है । प्राचीन आचार्य 'अनन्यत्र-भाव' (दूसरे स्थान में न रहना ) को विषय कहते हैं। इनमें हेलाराज ( वा० प० ३७।१४९ की टीका ), जिनेन्द्रबुद्धि ( न्यास, पृ० ५६२ ) मुख्य हैं । जिनेन्द्रबुद्धि कहते हैं कि जैसे चक्षुःप्रभृति इन्द्रियाँ रूपादि से अलग नहीं पायी जातीं और इससे चक्षु आदि का विषय रूपादि को कहा जाता है, उसी प्रकार 'गुरौ वसति' इत्यादि में विषय की सत्ता गुरु से पृथक् ( अन्यत्रभाव ) नहीं है; इसलिए गुरु शिष्य का विषय है। इतना ही नहीं, नवीन वैयाकरणों के विवेचन की पृष्ठभूमि भी इनके न्यास में ही है।
१. 'यद्वा एकदेशावच्छेदेन श्लेषेऽपि श्लेषस्य समीपमुपश्लेषं तत्कृतमित्यौपश्लेषिकत्वमित्यभिप्रायेण तदुदाहरणम् ( = कटे शेते )। -ल० श० शे०, पृ० ४७८
२. 'गङ्गायां घोषः' में सामीप्यमूलक औपश्लेषिक अधिकरणत्व है, जिससे शक्ति ( अभिधा ) के द्वारा ही अन्वयबोध की उपपत्ति हो जाती है। तब काव्यशास्त्र में इसे लक्षणा से क्यों सिद्ध करते हैं ? बात यह है कि पतञ्जलि अव्यवहित सामीप्य को ही आधार होने का कारण ( नियामक ) मानते हैं, व्यवहित को नहीं । प्रस्तुत स्थल में सामीप्य व्यवहित है, जिससे गंगा-शब्द की तीर में लक्षणा मानकर ही आधारत्व की उपपत्ति होती है । (द्रष्टव्य-ल० म०, पृ० १३२७-२८)- "अव्यवहितसामीप्यमेवाधारत्वनियामकम्, न तु व्यवहितमिति 'संहितायाम्' ( ६।१।७२ ) इति सूत्रे भाष्ये ध्वनितम् । व्यवहितसामीप्ये 'गङ्गायां घोषः' इत्यादौ गङ्गाशब्दस्य तीरे लक्षणा"।
३. द्रष्टव्य-प० ल० म० ( वंशी), पृष्ठ १५९ । ४. सि० को० ( लक्ष्मी टीका ), पृ० ८५१ ।