________________
उपसंहार
विगत अध्यायों में हमने पाणिनि से आरम्भ कर इस सम्प्रदाय में आविर्भूत प्रमुख आचार्यों द्वारा कारक के प्रश्न पर किये गये विचारों का ऐतिहासिक क्रम से पर्यवेक्षण किया है । हमने यह देखा है कि मूल सूत्र की व्याख्या के व्याज से टीकाकारों ने विभिन्न कारकों की तात्त्विक मीमांसा की है तथा संस्कृत भाषा में प्राप्ति तथाकथित सन्दिग्ध उदाहरणों के साथ सामञ्जस्य रखते हुए उन्होंने कारक के मूल प्रश्न का समाधान किया है । कारकतत्त्व के चिन्तन में फिर भी कारकत्व के प्रश्न पर उतनी व्यापक सामग्री नहीं मिलती । टीकाकारों ने कर्त्रादि कारक - भेदों के विश्लेषण में उक्त विषय की अपेक्षा अधिक शक्ति लगायी है । इसका मुख्य कारण तो यही प्रतीत होता है कि पाणिनि ने स्वयं 'कारक' को परिभाषित नहीं किया तथा इसे अन्वर्थ-संज्ञा या लोक में सरलता से बोध्य संज्ञा मानकर इसे अधिकार - सूत्र के अन्तर्गत रखा है। फिर भी कारकशक्ति की बाह्य अभिव्यक्ति के आधार पर अनुवर्ती आचार्यों ने इसके लक्षण करने के प्रयास किये हैं; क्रिया - निर्वर्तक, क्रियाजनक, क्रिया-सम्पादकप्रभृति लक्षण इसका स्वरूप निर्धारण करते हुए भी सर्वथा अनवद्य नहीं हैं - यह हमने सिद्ध किया है ।
वास्तव में कारक एक शक्ति है जो क्रिया के सम्पादन में अपनी प्रवृत्ति दिखलाती है । इस दृष्टि से कारकतत्त्व का विवेचन भाषा-वैज्ञानिक या शब्दशास्त्रीय न होकर दार्शनिक कोटि में आता है । शक्ति की द्रव्यभिन्नता व्याकरण-दर्शन में स्वीकृत है, भले ही इसमें न्याय-वैशेषिक दर्शनों का विरोध होता है । इस विषय में भर्तृहरि का शक्ति - विवेचन व्याकरण-दर्शन में अन्तिम शब्द के रूप में मान्य है, जिसमें कारक का लक्षण इसी शक्ति के रूप में स्वीकृत है ।
यह कारकशक्ति विभक्ति के द्वारा अभिव्यक्त होने के कारण उससे भिन्न है । प्रस्तुत प्रबन्ध में विस्तारपूर्वक प्रयोगों के साथ दोनों का अन्तर स्पष्ट किया गया है । यद्यपि 'विभक्ति' शब्द का प्रयोग पाणिनि में सुप् तिङ् तथा कतिपय तद्धित प्रत्ययों के लिए भी हुआ है, तथापि इस स्थान पर कारक और विभक्ति के वैषम्य का निरूपण करने के लिए विभक्ति सुप्-प्रत्यय मात्र के सीमित अर्थ में, पाणिनि-सूत्रों में भी, गृहीत हुई है - यह यहाँ दिखलाया गया है। साथ ही यह भी सिद्ध किया गया है कि विभक्ति भाषा के बहिरंग से सम्बद्ध है जब कि कारक शक्ति रूप होने के कारण उसके अन्तरंग अर्थात् दार्शनिक पक्ष या 'अर्थपक्ष' से सम्बद्ध है ।
कर्मादि कारकों का क्रिया से सम्बन्ध होना अनिवार्य है क्योंकि कारकशक्ति क्रिया
की निष्पत्ति में ही विभिन्न यही कारक तथा कारण में
प्रकार से सहायता करती है, मूल भेद है । इस प्रसङ्ग के
द्रव्यों की उत्पत्ति में नहीं । स्पष्टीकरण के लिए हमने