Book Title: Sanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Author(s): Umashankar Sharma
Publisher: Chaukhamba Surbharti Prakashan

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Page 339
________________ उपसंहार ३१९ विशेषतः लक्षणों के आकारिक पक्ष ( Formal side ) में; तथापि नागेश के साथ एक विशिष्ट चिन्तन-प्रक्रिया या विचारधारा ( Line of thought ) की परिसमाप्ति होती है - यह मानना पड़ेगा । संस्कृत-व्याकरण के विषय विशेष को लेकर पूरे पाणिनीय तन्त्र में ऐतिहासिक विकास का निरूपण करते हुए निष्पन्न किया गया यह अपने ढंग का प्रथम प्रयास है । लोगों ने कतिपय विषयों पर एक ही लेखक के विचारों का तुलनात्मक अध्ययन किया है । किन्तु शोध की ऐतिहासिक विधि से सम्बद्ध यह कार्य अपने-आप में अवश्य ही विलक्षण है । सम्पूर्ण तन्त्र के विभिन्न ग्रन्थों में बिखरे हुए तथ्यों को संयुक्त करके उनका समुदित उपयोग करके इस ग्रन्थ की रचना की गयी है । तुलना के लिए कहींकहीं तन्त्रान्तर में भी प्रवेश किया गया है, किन्तु किसी विशेष अध्ययन की उत्सुकता से नहीं । कारकों के अवान्तर भेदों की विवेचना करने के लिए दूसरे तन्त्रों का विशेष रूप से निर्देश किया गया है । उदाहरणार्थं हेतुकर्ता के तीन भेदों का ( प्रेषक, अध्येषक, आनुकूल्यभागी ) निरूपण जैन ग्रन्थकार रभसनन्दि के आधार पर हुआ है । करण के भेदों का विचार करते हुए तन्त्रान्तर के मतों की समीक्षा करके स्वतन्त्र मत का भी निवेश किया गया है । अतः इस सम्पूर्ण ग्रन्थ में यथाशक्ति यथामति कारक पर प्राप्त विच्छिन्न विवेचनों को एक नूतन संघटित रूप देकर अपनी सीमा में सर्वांगपूर्ण बनाने का प्रयास किया गया है ।

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