Book Title: Sanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Author(s): Umashankar Sharma
Publisher: Chaukhamba Surbharti Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 329
________________ अधिकरण-कारक ३०९ किन्तु रामतर्कवागीश आदि ने कहा है कि दोनों में संयोग-सम्बन्ध प्रतीत होने पर भी देश-विभाग के अभाव में ( क्योंकि दोनों की समान देश में सत्ता है ) संयोग-सम्बन्ध नहीं कहा जा सकता' । संयोग वहीं होता है जहां विभाग भी सम्भव हो, किन्तु तैल के अलग होने पर तिल की सत्ता ही नहीं रहती। अतः संयोगाभाव में समवाय ही माना जा सकता है। नव्यवैयाकरण ( पाणिनीय ) सामान्य रूप से समवाय-सम्बन्ध की सिद्धि करते हैं। यह सर्वमान्य तथ्य है कि अवयव-अवयवी के बीच समवाय है। यह भी सत्य है कि तेल में स्थित आधेयता अवच्छेदकता-सम्बन्ध से सभी अवयवों में वर्तमान है। दूसरी ओर, उन्हीं अवयवों में तिल की भी सत्ता समवाय-सम्बन्ध से है। तिल अवयवी है, अपने अवयवों में समवायतः रहेगा ही । अन्ततः हम कह सकते हैं कि तिल समवाय-सम्बन्ध से अवच्छिन्न व्यापकता से युक्त है, अतः अभिव्यापक है । पतञ्जलि दो स्थानों पर इस आधार की चर्चा करते हुए इसे मुख्य आधार मानते हैं, किन्तु अधिकरण-सूत्र में 'तमप्' प्रत्यय का अभाव उन्हें यह कहने को विवश करता है कि गौण और मुख्य का भेद यहाँ वास्तव में नहीं है। व्यापक मुख्य होने पर भी यह नहीं कहता कि अन्य आधार अधिकरण नहीं हैं । पतञ्जलि की पंक्तियाँ हैं- "तथाधारमाचार्यः किं न्याय्यं मन्यते ? यत्र कृत्स्न आधारात्मा व्याप्तो भवति । तेनेहैव स्यात्-तिलेषु तैलम्, दध्नि सपिरिति । गङ्गायां गावः, कूपे गर्गकुलम् ---इत्यत्र न स्यात् । 'कारकसंज्ञायां तरतमयोगो न भवति' इत्यत्रापि सिद्धं भवति"। (भाष्य १।४।४२ ) । अन्तिम वाक्य में ऊह ( विषयानुसार परिवर्तन ) करके 'स्वरित-सूत्र' ( १।३।११ ) में भी ये ही पंक्तियां हैं। स्पष्टत: भाष्यकार व्यापकेतर आधारों को गौण मानते हैं । यह तो आधार में तमप् का अभाव है कि अन्य आधार भी अधिकरण होते हैं। नागेश ने आधार के मुख्य-गौण होने का प्रतिपादन किया है ( ल० म०, ५० १३२७-२८ ) । व्यापक आधार इसलिए मुख्य है कि प्रकृत्यर्थतारूप अवच्छेदक से विशिष्ट में ही विभक्त्यर्थ ( सप्तम्यर्थ ) का अन्वय होना उचित है । तिल का प्रकृत्यर्थ तिलमात्र है जिसका अवच्छेदक है तिलत्व । यह ( तिलत्व ) तिल के सम्पूर्ण अवयव में रहता है, एक अवयव में नहीं। तिलत्वविशिष्ट तिल में ही सप्तमी का अर्थ ( वह आश्रयत्व हो या अधिकरणत्व ) अवस्थित है, अन्वित है। अभिप्राय यह है कि हैं किन्तु तर्कवागीश के समान ही देशविभाग का अभाव देखकर संश्लेष-व्यवहार की अनुपस्थिति स्वीकार करते हैं --'यद्यप्यत्र तिलादीनां तैलादिभिः सह संयोगोऽस्ति तथापि देश विभागाभावादत्र संश्लेषव्यवहारो नास्तीत्यौपश्लेषिकात् तत्पृथगेवोपस्थाप्यते'। १. गुरुपद हाल्दार, व्या० द० इति०, पृ० ३२६ । २. पा० १।४।४२ ( साधकतमं करणम् ) तथा १।३।११ ( स्वरितेनाधिकारः ) सूत्रों की व्याख्या में।

Loading...

Page Navigation
1 ... 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344