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अधिकरण-कारक
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दिया जाता है वह उस मास में उत्पन्न ही होता है। इस पर भाष्यकार कहते हैं कि 'एक मास में दिया जाय' का अर्थ है मास के समाप्त होने पर ( मासे गते )। मास के अतिक्रान्त होने पर जो ( वेतनादि ) दिया जाता है उसका औपश्लेषिक अधिकरण मास है, क्योंकि मास से उसका सामीपिक सम्बन्ध है ( तेन 'वटे गावः' इतिवत् सामीपिकमिदमधिकरणम् – उद्योत, उपरिवत् )
उक्त तीनों अधिकरणों की अलग-अलग व्याख्या के पूर्व अब हम इन भेदों के मूल कारण का विवेचन करें। इस विषय में वाक्यपदीय की कारिकाएँ ही सहायक हैं। उपश्लेष ( समीपगत सम्बन्ध ) की सत्ता सामान्यतया सभी प्रकार के अधिकरणों में रहती है चाहे वह तिल हो ( व्यापक ), आकाश हो ( वैषयिक ) या चटाई हो ( औपश्लेषिक )' । उपश्लेष की अभिन्नता सर्वत्र रहने पर भी सम्बन्ध अथवा उपकार के प्रकार भिन्न-भिन्न हैं-संयोग वाले आधार में एक प्रकार सम्बन्ध है तो समय वाले में दूसरे ही प्रकार का । 'देवदत्तः कटे आस्ते' ( चटाई पर बैठा है ) इस उदाहरण में संयोग-सम्बन्ध से युक्त चटाई का उपश्लेष देवदत्त के साथ सभी अवयवों की व्याप्ति पूर्वक नहीं है, प्रत्युत कतिपय अवयवों की व्याप्ति होने के कारण सामान्यरूप से इसे औपश्लेषिक आधार कहते हैं । 'तिलेषु तैलम्' इसमें तैल-रस समवाय-सम्बन्ध से युक्त है, उसका तिल के साथ सम्बन्ध सभी अवयवों को व्याप्त करते हुए होता है--यह व्यापक अधिकरण है। 'खे शकुनयः' (आकाश में पक्षी)-यहाँ आकाश में परमार्थतः अवयवों का अभाव होने से, उसके प्रविभाग की कल्पना करके, पक्षी का सम्बन्ध दिखलाया गया है-यह वैषयिक अधिकरण है।।
हेलाराज के अनुसार यहाँ विषय का अर्थ है-अनन्यत्रभाव, अर्थात् कहीं दूसरी जगह पर न होना। इसीलिए यहाँ भी कतिपय अवयवों को कल्पित रूप में व्याप्त कर सकने के कारण संयोग से उपश्लेष ही है । 'गुरौ वसति' में चूंकि शिष्य की वृत्ति गुरु के अधीन है, अतः इसे मानते हुए वैषयिक अधिकरण गुरु है, शिष्य (कर्ता) के माध्यम से यहाँ क्रियाधारता है। यहाँ उपश्लेष भी बुद्धि-परिकल्पित है । 'युद्धे संनह्यते' ( युद्ध में प्रस्तुत होता है )-यहाँ युद्ध के उद्देश्य से कवचादि बन्धन के रूप में तैयारी होती है, इस प्रवृत्ति का विषय युद्ध है। यह भी वैषयिक ही है। 'गङ्गायां गावः' में गङ्गा शब्द सामीप्य के साथ अपने प्रदेश का बोधक है, जिसे औपश्लेषिक के अन्तर्गत रखा जा सकता है। 'शत्रोरभावे सुखम्' में भी अभाव. को बुद्धि-कल्पित कारकत्व होता है ( हेलाराज ३, पृ० ३४९ )।
इस प्रकार उपश्लेषात्मक आधार के उपकार-भेद से कई प्रकार हो जाते हैं । इन १. 'उपश्लेषस्य चाभेदस्तिलाकाशकटादिषु ।
उपकारास्तु भिद्यन्ते संयोगिस वायिनाम् ॥ -वा०प० ३।७।१४९ २. 'अन्यथा तु संयोगिन्याधारे सम्बन्धः, अन्यथा तु समवायिनीति सम्बन्धिभेदाद् भिन्नत्वेन. व्यपदेशः।
-हेलाराज ३, पृ० ३४९