Book Title: Sanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Author(s): Umashankar Sharma
Publisher: Chaukhamba Surbharti Prakashan

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Page 326
________________ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन अधिकरण के भेद पाणिनीय व्याकरण में सर्वप्रथम पतञ्जलि ने 'संहितायाम् ' ( ६।१।७२ ) सूत्र की व्याख्या में एक ही साथ अधिकरण के तीन भेदों का उल्लेख किया है । वे हैंव्यापक, औपश्लेषिक तथा वैषयिक । इस सम्बन्ध में वे संहिताधिकार-सूत्र का प्रत्याख्यान करते हुए दो शब्दों के बीच औपश्लेषिक सम्बन्ध होने का निर्णय देते हैंएक शब्द का दूसरे शब्द से इस उपश्लेष के अतिरिक्त दूसरा कौन-सा सम्बन्ध हो सकता है ? इसीलिए 'इको यणचि ' ( पा० ६।१।७७ ) में 'अचि' औपश्लेषिक अधिकरण है, जिसका अर्थ होगा - परवर्ती अच् ( स्वरवर्ण ) में उपश्लिष्ट ( निकट से सम्बद्ध ) इक् को 'यण् हो जाता है । ३०६ वैपयिक और व्यापक एक दूसरे स्थान में इन तीनों भेदों का पतञ्जलि ने एक दूसरे रूप में उल्लेख किया है। सूत्र में ' अस्मिन्नधिकम्' के स्थान पर 'अस्मादधिकम्' का पाठ सुझाने वाले वार्तिक का उत्तर देते हुए वे कहते हैं कि पञ्चमी की आवश्यकता नहीं है, अधिकरणसप्तमी बिल्कुल ठीक है । प्रश्न है कि कैसा अधिकरण यहाँ है ? की सम्भावना नहीं होने से औपश्लेषिक ही यहाँ संगत होता है । उपश्लेष का निकट सम्बन्ध के रूप में अर्थ करने पर उदाहरण में उसे ठीक से संघटित किया जा सकता है - इस रात में ( सौ रुपयों के समूह में ) एकादस कार्षापण ( ग्यारह रुपये ) अधिक हैं, अर्थात् उपश्लिष्ट हैं == एकादशं शतम् ('एकादशन् + ड-प्रत्यय ) । अतः अध्याहृत उपश्लेषण क्रिया की अपेक्षा रखते हुए यहाँ अधिकरण-कारक है, जो कर्ता के द्वारा हुआ है - कर्ता के द्वारा ये रुपये सौ रुपयों में उपश्लिष्ट किये गये हैं । भाष्य का एक तीसरा स्थल भी महत्त्वपूर्ण है जिसमें यद्यपि तीनों भेदों की चर्चा नहीं है, तथापि औषश्लेषिक के विषय में उपर्युक्त स्थलों की पुष्टि उससे होती है ' दिया जाय ( दीयते )' तथा ' किया जाय ( कार्यम् )' इन दो अर्थों में सप्तमीसमर्थ कालवाचक शब्द से वे ही प्रत्यय लगाये जाते हैं जो 'तत्र भव:' ( ४|३|५३ ) के अर्थ में विहित हैं, जैसे - मासे दीयते कार्यं वा मासिकम् ( ठक् ) । यहाँ शंका होती है कि 'तत्र दीयते' को 'तत्र भवः' में ही गतार्थ क्यों न कर दिया जाय ? एक मास में जो १. अधिकरणं नाम त्रिप्रकारम् -- व्यापकम्, औपश्लेषिकं, वैषयिकमिति । शब्दस्य च शब्देन कोऽन्योऽभिसम्बन्धो भवितुमर्हत्यन्यदत उपश्लेषात् । इको यणचि - अच्युप - श्लिष्टस्येति' । - भाष्य ५, पृ० ७४ २. ‘तदस्मिन्नधिकम्०' ( ५/२/४५ ) - ' यद्यपि तावद् वैषयिके व्यापके वाऽधिकरणत्वे सम्भवो नास्ति, औपश्लेषिकमधिकरणं विज्ञास्यते । एकादश कार्षापणा उपश्लिष्टा अस्मिञ्छते = एकादशं शतम्' । ( भाष्य ४, पृ० ३२४ ) । ३. 'तत्र च दीयते कार्यं भववत्' ( पा० ५1१1९६ ) – ' तत्र तत्र भवः' इत्येव सिद्धम् । न सिध्यति । न तन्मासे दीयते । किं तर्हि ? मासे गते । एवं तर्हि - ओपश्लेषिकमधिकरणं विज्ञास्यते" ( भाष्य ४, पृ० २८३ ) ।

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