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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
कि कर्ता, कर्म या करण को भी अधिकरण-संज्ञा दे दी जाय । कोण्डभट्ट कहते हैं कि यह आपत्ति तभी हो सकती थी जब कर्ता आदि कारकों के द्वारा अपने विषय-क्षेत्र में आने पर अधिकरण-संज्ञा बाधित नहीं होती। किन्तु हम देखते हैं कि इन सभी कारकों का विषय-क्षेत्र पृथक्-पृथक् है अर्थात् ये निरवकाश होकर अधिकरण-संज्ञा को बाधित करते हैं । अतः इनके अधिकरण होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। ___ फिर भी आश्रयत्व-सामान्य अर्थ के कारण द्वितीया, तृतीया और सप्तमी विभक्तियों के परस्पर पर्याय होने का प्रसङ्ग उपस्थित हो ही जायगा। किन्तु स्थिति ऐसी नहीं है । आश्रय के अर्थ में समान रहने पर भी आश्रय-विषय को लेकर तीनों में स्पष्ट भेद है । फल का आश्रय होने पर द्वितीया, व्यापार का आश्रय होने पर तृतीया तथा कर्ताकर्म का आश्रय होने पर सप्तमी-इस प्रकार विभक्तियों की व्यवस्था है। अत: कर्ता या कर्म द्वारा क्रियाश्रय होने का साम्प्रदायिक लक्षण वैयाकरणभूषण में भी दुहराया जाता है।
नागेश भी उक्त लक्षण की आवृत्ति करते हुए फल तथा व्यापार का सन्निवेश करके अधिकरण का निर्वचन करते हैं---'कर्तृकर्मद्वारकफलव्यापाराधारत्वमधिकरणत्वम्' ( प० ल०, पृ० १८७ )। फल तथा व्यापार समवाय-सम्बन्ध से क्रमशः कर्म तथा कर्ता में स्थित होते हैं, पुनः कर्म तथा संयोग-सम्बन्ध से आधार में रहते हैं। इस प्रकार क्रिया का विश्लेषण करके उसका परम्परा-सम्बन्ध ( स्वसमवायि-संयोगसम्बन्ध ) आधार में दिखलाया जा सकता है । 'स्थाल्यामोदनं गृहे पचति' यहाँ स्थाली तथा गृह दो आधार ( अधिकरण ) हैं । 'पचति' क्रिया में फल विक्लित्ति तथा व्यापार पा- ( अधःसन्तापनादि ) है। विक्लित्तिरूप फल ओदन ( कर्म ) में समवाय से है। दूसरे प्रकार से ओदन विक्लित्ति का आधार भी है, जिससे 'ओदन में कोमलता' जैसा प्रयोग हो सकता है। इसके अधिकरणत्व का समर्थन 'भवति' का अध्याहार करके हो सकता है । अब हम देखते हैं कि ओदन का सम्बन्ध संयोगरूप से स्थाली के साथ है, अर्थात् ओदन का आधार स्थाली है। इस प्रकार कर्म द्वारा फल का आधार ( फल के आधार का आधार ) अधिकरण हुआ। स्थाली इसी प्रकार का अधिकरण है। दूसरी ओर, पाकव्यापार का आधार समवायतया कर्ता है। कर्ता ( क्रियावान् ) तथा क्रिया के बीच ऐसा ही सम्बन्ध होता है, क्योंकि ये अयुतसिद्ध हैं । 'कर्तरि पाकव्यापारः' इस रूप में कर्ता को साक्षात् व्यापाराधार भी दिखला सकते हैं । अब कर्ता का आधार गृह है, दोनों में संयोग-सम्बन्ध है। अत: व्यापार के समवायी से संयोग-सम्बन्ध ( व्यापार के आधार का आधार ) होने के कारण गृह भी अधिकरण है ।
साक्षात् क्रियाधार होने पर अधिकरण इसलिए नहीं होता कि पर-सूत्रों में कर्ता और कर्म के स्थित होने के कारण साक्षात् क्रियाधार में इन कारकों के द्वारा अधिकरण-संज्ञा का बाध हो जाता है। साक्षात् क्रियाधार के रूप में यदि दो संज्ञाओं का समान विषय है तो निश्चय ही उस पर परसंज्ञा का आधिपत्य होगा।