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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
कर्मघटित परम्परा से अधिकरणत्व या आधेयत्व है। अधःसंतापनरूप पाक-क्रिया की वृत्ति स्थाली में नहीं है तथापि कर्म ( ओदन ) के माध्यम से चलने वाली परम्परा द्वारा अधिकरणत्व या आधेयत्व सप्तमी का अर्थ होता है, जिसका अन्वय उक्त प्रकार से पाकक्रिया में है । इसी स्थल में भवानन्द भर्तृहरि की अधिकरण-कारिका को प्रमाण के रूप में रखते हुए कहते हैं- 'एवं कर्तृ कर्मान्यतरद्वारा क्रियाश्रयत्वे सति तत्क्रियोपकारकत्वमधिकरणत्वम्' ( का० च०, पृ० ८० ) अर्थात् कर्ता या कर्म इनमें से किसी एक के द्वारा क्रिया का आश्रय होने के साथ-साथ जो उस क्रिया का उपकारक ( जनक ) हो वही अधिकरण है । क्रियाजनक होने से इसकी कारकता निरूपित होती है।
अन्तिम रूप से भवानन्द द्वारा स्वीकृत लक्षण है-'परम्परया क्रियाश्रयत्वमधिकरणत्वम्' । कर्ता और कर्म ( साक्षात् क्रियाश्रय ) का वारण करने के लिए 'परम्परया' शब्द का प्रयोग है । इसीलिए प्रांगण में स्थित होकर लम्बे डंडे से काष्ठ का संचालन करते हुए यदि कमरे के भीतर पाकक्रिया की जाय तो भी गृहं ( अधिकरण ) कर्ता के द्वारा क्रिया का आश्रय भले ही न हो- 'गृहे पचति' ऐसा प्रयोग सम्भव है । अतः कर्ता के द्वारा क्रियाश्रय होना अधिकरण के लिए कोई अनिवार्य तथ्य नहीं है। 'परम्परया' विशेषण इन उदाहरणों की व्याख्या के साथ-साथ कर्ता या कर्म के द्वारा होने वाले क्रियाश्रयत्व को भी अन्तर्भूत कर लेता है। प्रकारान्तर से भी इस विशेषण की सार्थकता समझी जा सकती है । अधःसन्तापन ( पाकक्रिया ) का अर्थ है-स्थाली के निम्न भाग में अग्निसंयोग के अनुकूल काष्ठ, अग्नि आदि का व्यापार । इनके ही साथ उस व्यापार का सीधा सम्बन्ध है । यदि 'परम्परया' विशेषण नहीं होता तो उत्त व्यापार से साक्षाद् वृत्तिवाले काष्ठादि पदार्थों को अधिकरण कहते तथा 'काष्ठे पचति अग्नौ पचति' इत्यादि अनिष्ट प्रयोग होने लगते । 'परम्परया' विशेषण की तीसरी सार्थकता है कि इसके अभाव में 'पथि गच्छति' के समान 'स्वस्मिन् गच्छति' जैसे प्रयोग होते। किन्तु 'स्व' के साथ चूंकि 'गच्छति' की साक्षाद् वृत्ति है अतः अधिकरण नहीं होता । तात्पर्य यह है कि वैयाकरणों के समान भवानन्द भी अधिकरण के लक्षण में 'परम्परा से' क्रिया-सम्बन्ध पर बहुत बल देते हैं ।
नैयायिकों में सामान्यतया यह धारणा है कि अधिकरण का क्रिया से अन्वय होना आवश्यक नहीं । दूसरी ओर वैयाकरण इसके कारकत्व का निर्वाह करने के लिए क्रियान्वय परमावश्यक समझते हैं । भवानन्द इन दोनों दृष्टिकोणों की चर्चा करते हुए कहते हैं कि वैयाकरण लोग 'भूतले घट:' जैसे प्रयोग या तो करने नहीं देंगे या गम्यमान क्रिया का आक्षेप करेंगे। नैयायिकों के लिए ऐसे प्रयोग असाध्य नहीं। इस वाक्य का 'भूतलाधेयो घट:' ऐसा शाब्दबोध हो सकता है। यह बात अवश्य है कि
(ख) 'परम्परासम्बन्धस्यापि प्रतीतिबलेन क्वचिदाधाराधेयभावनियामकत्वोपगमात्'।
-व्यु० वा०, पृ० २६९