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अधिकरण-कारक
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पतनशून्य दोनों प्रकार के पदार्थों में अधिकरण की व्यवस्था हो सकती है। व्युत्पत्तिवाद में भी इस पूर्वपक्ष का उल्लेख है'।
इस स्थिति में प्रधान द्रव्यों का अधिकरण तो हो ही सकता है। केवल अमूर्त आकाश, दिक्, कालादि अधिकरण-शून्य होंगे । गुण, कर्म, जाति, विशेष का अधिकरण वही होगा जिसमें ये पृथक्-पृथक् समवेत होंगे। अभाव तथा समवाय के अधिकरण भी पूर्वोक्त नियमानुसार इनके स्वरूप-सम्बन्ध को धारण करने वाले पदार्थ होंगे; जैसे 'भूतल में घटाभाव' -यहाँ अभाव का अधिकरण भूतल है । इसी प्रकार परम्परासम्बन्ध से अधिकरण का निरूपण हो सकता है ।
भवानन्द कहते हैं कि इस लक्षण में पहला दोष तो अननुगम का है, अर्थात् अधिकरण के सभी उदाहरणों में यह प्राप्त नहीं हो सकता। लक्षण की यह विशेषता होती है कि वह सभी उदाहरणों में समान रूप से अनुगत होता है। प्रस्तुत लक्षण की शिथिलता इसी बात से प्रकट है कि पतनशील तथा तच्छून्य पदार्थों के अधिकरणों का अन्तर्भाव करने में बहुत कठिनाई हुई है । दूसरा दोष यह है कि 'भूतले घट:' इस उदाहरण में ही अधिकरणत्व की सिद्धि के लिए अनेक बाधाओं से पार पाकर विशद व्याख्या करनी पड़ी है अर्थात् कल्पनागौरव-दोष हुआ है । इसीलिए गदाधर ने इस प्रकरण को समाप्त करते हुए कहा है कि ऐसे लक्षण की अनुपस्थिति में भी अधिकरण का व्यवहार बड़े आनन्द से चल सकता है ( एतदनुपस्थितावप्यधिकरणव्यवहारादित्यलम्'।- व्यु० वा०, पृ० २६९ )। ___ तब अधिकरणत्व क्या है ? भवानन्द का विचार है कि जिस प्रकार प्रतियोगित्व और अनुयोगित्व विजातीय प्रतीति से प्रमाणित किये जाने वाले एक विशेष प्रकार के स्वरूप-सम्बन्ध' हैं, उसी प्रकार आधेयत्व और अधिकरणत्व भी हैं । अतएव संयोगादि सम्बन्धों के बिना भी हमें इन दोनों की विशिष्ट प्रतीति होती है। आधेयत्व का विजातीय पदार्थ अधिकरणत्व है, उसी की प्रतीति पर यह निर्भर है। यह एक पृथक् प्रश्न है कि यह स्वरूप-सम्बन्ध आधाराधेय से भिन्न है या अभिन्न है।
कर्ता और कर्म के माध्यम से अधिकरण का क्रिया से अन्वित होना भवानन्द को भी स्वीकार है । 'गृहे चैत्रः पचति' में अधःसन्तापन के रूप में जो पाक-क्रिया है उसकी साक्षाद् वृत्ति गृह में नहीं है, उसकी वृत्ति चैत्र में है। अतः कर्ता में घटित ( उसके माध्यम से आगत ) परम्परा द्वारा ही अधिकरणत्व या आधेयत्व का निरूपण होता है । यही सप्तम्यर्थ है जिसका अन्वय पाक-क्रिया से है । 'स्थाल्यामोदनं पचति' में १. 'स्वान्यत्वे सति स्वनिष्ठपतनानुत्पादक-प्रयोजकसंयोगवत्त्वे तदिति चेन्न' ।
-वहीं १. 'मिद्वयात्मकः सम्बन्धः । प्रतियोग्यनुयोग्यन्यतरात्मकः सम्बन्धः । सम्बन्धान्तरमन्तरेण विशिष्टप्रतीतिजननयोग्यत्वम्'। -सर्वतन्त्रसि० संग्रह, पृ० २३१
२. (क) 'गृहे चैत्रः पचतीत्यादी..... कर्तृघटितपरम्परयाऽधिकरणत्वमाधेयत्वं वा पाकादिक्रियान्वितसप्तम्यर्थः' ।
-का० च०, पृ० ७९ २१ सं०