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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन भी नहीं और इसलिए इनमें जनकत्व-शक्ति भी नहीं है । अपेक्षणीय का अर्थ उत्पादक स्वीकार करने पर न केवल समवायिकारण ही कार्य का अधिकरण होगा, प्रत्युत कारणमात्र ही अधिकरण की सीमा में आ जायेंगे। दण्डादि (निमित्त कारण ) भी घटादि कार्यों के अधिकरण होने लगेंगे।
अपेक्षणीय होने का अर्थ अधिकरण हो जाना भी नहीं लिया जा सकता, क्योंकि तब आत्माश्रय-दोष होगा। यह दोष तभी होता है जब स्वज्ञान के लिए स्वज्ञान की ही अपेक्षा होती है ( न्यायकोश, पृ० १२१)। यदि अपेक्षणीय का अर्थ अधिकरण करें और उसे ही अधिकरण का लक्षण मानें तो लक्ष्य-लक्षण में कोई भेद नहीं रहेगा। यही आत्माश्रय-दोष है। माधव इन दोषों में एक अन्य दोष भी जोड़ते हैं। वह यह कि भवन में उत्पन्न घट यदि आंगन में लाया जाय तो उसके इस नये अधिकरण ( आँगन ) में अव्याप्ति होगी' । कारण यह है कि घट की उत्पत्ति के लिए तो तत्काल भवन की अपेक्षा है, वहीं घट उत्पन्न हुआ है। किन्तु ऐसी बात नहीं है, क्योंकि आंगन घट की उत्पत्ति के लिए अपेक्षित भले ही न हो, स्थिति के लिए तो अपेक्षित है ही।
(ग ) कुछ लोग पतनशील द्रव्य का अधिकरण उसे मानते हैं जो उससे भिन्न होने के साथ-साथ उसके पतन को रोकनेवाले संयोग से युक्त मूर्त पदार्थ हो । इस लक्षण में 'मूर्त' शब्द नहीं रहे तो ईश्वर में अतिव्याप्ति हो जाय । ईश्वर ब्रह्माण्ड को धारण करने वाले संयोग का आश्रय है । माधव टिप्पणी देते हैं कि ब्रह्माण्ड का पतनशील होना कोई प्रसिद्ध तथ्य तो नहीं अतः मूर्तत्व की अनुपस्थिति में भी ईश्वर में अतिव्याप्ति का प्रश्न नहीं उठता । सत्य यह है कि यह मूर्त शब्द इसलिए प्रयुक्त है कि विभु-रूप ईश्वर के शरीर का अधिकरणत्व रोका जाय ( माधवी, पृ० ७८ )। कोई पदार्थ अपना अधिकरण आप ही न हो जाय इसलिए 'स्वभिन्न' विशेषण लगाया गया है । किन्तु अभी भी इसमें एक दोष रह ही जाता है कि जिन पदार्थों का पतन प्रसिद्ध नहीं, जो पतनशील नहीं हों, उनका अधिकरण होगा या नहीं। पूर्वपक्षी कहेंगे कि पतनशून्य मूर्त पदार्थों का भी अधिकरण होता है, किन्तु उनमें विलक्षण संयोग रहता है । इस विलक्षणता की कल्पना पतनाभाव के द्वारा ही की जा सकती है। कमल के कोष के भीतर ही उत्पन्न तथा नष्ट होने वाले भ्रमर का पतन अप्रसिद्ध है-वह उड़ता तो है किन्तु कमल के अन्दर इसका भी अवसर नहीं है। ऐसे भ्रमर का अधिकरण कमल है । इसमें अव्याप्ति नहीं होती। इस प्रकार पतनशील और
१. का० च० व्याख्या ( माधवी ), पृ० ७७ ।
२. 'नापि तद्भिन्नत्वे सति तत्पतनप्रतिबन्धकसंयोगवन्मूर्तत्वं पतनवद्रव्यस्याधि. करणत्वम्।
-का० च०, पृ० ७७ ३. 'यस्य पतनमप्रसिद्धं तदाधारत्वासङ्ग्रहात्' । -व्यु० वा०, पृ० २६७