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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
क्रिया के द्वारा जिसे प्राप्त करने की इच्छा की जाय वह भी अपादान है । जैसे'यवेभ्यो गां वारयति' ( जौ के खेत में जाने से गाय को रोकता है ) । यहाँ गौ के वारण का अर्थ है उसकी प्रवृत्ति का विघात करना । पतंजलि 'माषेभ्यो गां वारयति' यह उदाहरण देकर ईप्सित की व्याख्या करते हैं । जिस व्यक्ति के पास माष ( उड़द ) हो, गाय नहीं - उस व्यक्ति को माष ईप्सित हो सकते हैं, किन्तु जिसके पास केवल गाय है, माष नहीं - उसके लिए तो गाय ही ईप्सित है । उस व्यक्ति को माष कैसे ईप्सित हो सकते हैं ? किन्तु वास्तव में उसे भी माष ईप्सित ही है, चूंकि वह गायों का उससे वारण करता है अतः माष उसका ईप्सित तो है ही । स्थिति यह है कि वारण क्रिया के द्वारा परकीय होने पर भी माषों को वारणकर्ता ईप्सित समझता है। कि इनका नाश न हो। इसीलिए अपनी गायों को वह उनसे अलग करता है' । अभिप्राय यह है कि यहाँ 'ईप्सित' का अर्थ है 'जिसे वारण क्रिया के द्वारा प्राप्त करना अभीष्ट हो' । इसी आधार पर भाष्यकार 'कूपादन्धं वारयति' में कूप को ईप्सित सिद्ध करते हैं । वारणकर्ता यह देखता है कि कहीं अन्धा कूप में न जा पड़े, अतः वारण - क्रिया का ईप्सित कूप ही है। जिस प्रकार गायों के वारण में शस्य - विनाश को ध्यान में रखकर सोचा जाता है कि कहीं गायें माष के खेतों में न चली जायँ उसी प्रकार यहाँ अन्धे के विनाश को ध्यान में रखा जाता है ।
भाष्यकार प्रकारान्तर से भी कूप को ईप्सित सिद्ध करते हैं । तदनुसार वारणकर्ता को कूप ईप्सित नहीं, अन्धे को है । वास्तव में यह व्याख्या सूत्र का अर्थ स्पष्ट करती है कि वारण क्रिया के कर्म का ईप्सित अपादान होता है । अन्धे को कुछ दिखलायी नहीं पड़ता, इसलिए उसे जैसे कूपेतर स्थान ईप्सित है, वैसे ही कूप भी है । उसे क्या पता कि वह कूप में जा रहा है कि सड़क पर दोनों ही उसके लिए समान रूप से ईप्सित है ।
'अग्नेर्माणवकं वारयति' में माणवक ( कर्म ) को ईप्सित होने के कारण अपादान की प्राप्ति का प्रसंग होने पर कह सकते हैं कि कर्मसंज्ञा परवर्तिनी होने के कारण अपादान को रोक लेगी । किन्तु ऐसी स्थिति में अग्नि में भी तो अपादान का बाध हो जायगा । इससे बचने के लिए सुझाव दिया गया है कि कर्म का जो ईप्सित हो अथवा ईप्सित का भी ईप्सित हो वही अपादान है - ऐसा लक्षण करें । कात्यायन इस संकट से बचाते हैं कि ऐसी स्थिति नहीं आ सकती, क्योंकि कर्म के लक्षण में
१. " तत्र वारणक्रियया परकीया अपि माषा वारयितुमिष्टा भवन्ति, 'मा नशन्नेते' इत्येतेभ्योऽसौ गा वारयति" । — कैयट २, पृ० २५१
२. 'ईप्सित इत्यनेन कर्मणा कर्तृमात्रस्याक्षेपान्निवार्यमाणस्यान्धस्य गमनादिक्रियया कूप आप्तुमिष्टो भवतीति प्रवर्ततेऽपादानसंज्ञा' । - कैयट २, पृष्ठ २५१
३. 'तस्माद् वक्तव्यम् – कर्मणो यदीप्सितमिति । ईप्सितेप्सितमिति वा' ।
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- महाभाष्य, खंड २, पृ० २५२