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अपादान-कारक
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यहाँ 'कुर्याम्' नहीं कहकर 'स्याम्' तथा 'प्रजायेय' का प्रयोग ब्रह्म की उपादानकारणता ही सिद्धि करता है।
इस विवेचन से यह स्थिर होता है कि प्रकृत सूत्र में 'प्रकृति' उपादान वाचक है तथा जहाँ उपादान कारण के अभाव में भी पञ्चमी की श्रुति हो वहाँ अपादान में नहीं, हेतु में पञ्चमी है । इसकी सिद्धि उक्त सूत्र में 'विभाषा' को पृथक् करके अर्थ करने पर हो सकती है, अन्यथा सूत्रानुसार तो हेतु के गुणवाचक होने पर ही पञ्चमी का विकल्प हो सकता है । तदनुसार 'आदित्याज्जायते वृष्टिः' इत्यादि प्रयोग भी समर्थित हो सकते हैं, इसके लिए उपादान-कारणत्व की सिद्धि में आकाश-पाताल एक करने की आवश्यकता नहीं।
(७) भवः प्रभवः ( १।४।३१ )-भू-धातु के कर्ता के उत्पत्तिस्थान को भी अपादान कहते हैं; जैसे-'हिमवतो गङ्गा प्रभवति, कश्मीरेभ्यो वितस्ता प्रभवति' । भाष्यकार के अनुसार जल का अपसरण होने से अपाय के अन्तर्गत ही यहाँ अपादान है । आत्यन्तिक अपसरण इसलिए नहीं होता कि उसमें सातत्य है। अथवा विभिन्न रूपों में जल उत्पन्न होता रहता है । 'प्रभवति' का अर्थ है-प्रथम प्रकाशन ( व्यु० वा०, पृ० २५८ तथा ल० म०, पृ० १२९७ )। इसलिए प्रथम प्रकाश के अधिकरण को अपादान कहते हैं-यही सूत्रार्थ हुआ।
भवानन्द अपने कारकचक्र में कहते हैं कि कि इस सूत्र के उदाहरण में पंचमी का अर्थ हेतु नहीं है, अन्यथा 'जनिकर्तुः प्रकृतिः' में ही इसका अन्तर्भाव हो जाता। इसलिए यहाँ आद्य-बहिः-संयोग को धात्वर्थ मानना चाहिए । बहिः पदार्थ पृथ्वी ही है, क्योंकि गंगा वहीं प्रकट होती है । पंचम्यर्थ है-हिमवान् के संयोगध्वंस के अव्यवहित उत्तरक्षण में विद्यमान रहना । आख्यातार्थ आश्रयता है । इस प्रकार वे न्यायमत से शाब्दबोध देते हैं-'हिमवत्संयोगध्वंसाव्यवहितोत्तरक्षणवाद्यपृथिवीसंयोगाश्रयतावती गङ्गा' ( का० च०, पृ० ७३ ) । इस शाब्दबोध में 'अव्यवहित' तथा 'आद्य' पदों का निवेश नहीं हो तो 'वैकुण्ठात् काशीतो वा गङ्गा प्रभवति' जैसे अपप्रयोग होने लगेंगे। स्पष्टीकरण यह है कि वैकुण्ठ से गंगा का संयोगध्वंस होने के तुरन्त बाद ही पृथ्वी से सम्बन्ध नहीं होता । दूसरी ओर काशी से गंगा का संयोग-ध्वंस होने के बाद पृथ्वी से आदि-सम्बन्ध नहीं होता, क्योंकि यह तो बहुत ही पहले हो चुका है जब वह हिमालय से गिरी । भवानन्द का सूक्ष्म विश्लेषण बहुत रोचक है । मेघदूत के 'वल्मीकाग्रात्प्रभवति' में भी यही अर्थ है, किन्तु इसमें बाह्य पदार्थ के रूप में वल्मीकाग्र ऊर्ध्वदेश है। भवानन्द के शिष्य जगदीश ने इस गुरुमार्ग को संक्षिप्त करके प्रथम प्रकाशन के रूप में प्रभवन का अर्थ माना है, जो गदाधर और नागेश को सम्मत है । जगदीश द्वारा दिया गया शाब्दबोध इस प्रकार है-'वल्मीकाग्र-वृत्ति-प्रथमप्रकाशनवद् आखण्डलस्य
१. श० को० २, पृ० ११९-२० । २. 'प्रभवनं प्रथमप्रकाशः, प्रग्रहणात् । तदधिकरणमपादानमित्यर्थः' ।
--ल. श० शे०, पृ. ४५५