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संस्कृत - व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन अधिकरण का अर्थ
आधार को अधिकरण का लक्षण माना गया है ( आधारोऽधिकरणम् १२४/४५) । कारक - प्रकरण में क्रिया सापेक्ष होने के कारण उसे अध्याहृत किया जाता है । तदनुसार क्रिया का आधार अधिकरण है । यहाँ प्रश्न होता है कि क्रिया का आधार या तो कर्ता होता है या कर्म, क्योंकि कर्तृस्थ ( रामो गच्छति ) या कर्मस्थ ( ओदनं पचति ) रूप 'ही क्रिया होती है । तब अधिकरण को क्रिया का आधार कैसे कहा जा सकता है ? यदि इसके उत्तर में हम कर्तृ - कर्मसंज्ञाओं का अनवकाश कहकर निकल जाना चाहें तो यह नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसी दशा में भी अधिकरण के साथ इनके पर्याय का प्रसंग उत्पन्न हो जायगा -कभी अधिकरण-संज्ञा तो कभी कर्तृसंज्ञा या कर्म-संज्ञा' । स्पष्ट है कि लक्षण अपने-आप में अपूर्ण है ।
आधार की परम्परया अधिकरणता
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इस प्रसंग के निवारणार्थ लक्षण की व्याख्या में कहा जाता है कि क्रिया के आश्रय के रूप में विद्यमान कर्ता या कर्म में स्थित धारण- क्रिया के प्रति जो आधारभूत कारक हो उसे अधिकरण कहते हैं । धारण क्रिया के प्रयोग से यह नहीं समझना चाहिए कि अपादान या सम्प्रदान के समान अधिकरण भी क्रिया - विशेष से सम्बद्ध होता है । इसके विपरीत यह सभी क्रियाओं से सम्बद्ध है । क्रिया का आधार होने के कारण उन उन क्रियाओं को धारण करने की बात इसमें अवश्य उठती है । क्रिया को कोई पदार्थ दो तरह से धारण कर सकता है - साक्षात् या परम्परा से । जहाँ तक क्रिया को साक्षात् धारण करने का प्रश्न है तो यह केवल कर्ता या कर्म से ही सम्भव है । अधिकरण व्यवधान से ही क्रिया को धारण करता है । यह व्यवधान कर्ता या कर्म के द्वारा उपस्थित होता है । अतः अधिकरण क्रिया के साक्षात् आश्रयस्वरूप कर्ता या कर्म का आधार बनकर ( उन्हें धारण करके ) क्रिया का आधार कहलाता है । तात्पर्य यह है कि अधिकरण उक्त प्रकार से क्रिया-धारण करने के प्रति असाक्षात् उपकारक होता है ।
वाक्यपदीय में अधिकरण- लक्षण
भर्तृहरि इन्हीं विषयों को दृष्टि में रखकर अधिकरण का लक्षण इस प्रकार करते हैं
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'कर्तृकर्मव्यवहितामसाक्षाद्धारयत्क्रियाम् । उपकुर्वत्क्रियासिद्धौ शास्त्रेऽधिकरणं स्मृतम्' ॥
- वा० प० ३।७।१४८
कर्ता या कर्म से व्यवहित क्रिया को असाक्षात् रूप से धारण करता हुआ जो
१. न्यास ( १।४।४५ ), पृ० ५६१ ।
२. द्रष्टव्य – काशिका, उक्त सूत्र पर । ३. न्यास -- उपरिवत्, पृ० ५६१-६२ ।