Book Title: Sanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Author(s): Umashankar Sharma
Publisher: Chaukhamba Surbharti Prakashan

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Page 316
________________ २९६ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्वानुशीलन विभाजन करने की शक्ति होने से वह उन्हीं का आधार है, जब कि काल क्रियाओं का विभाजन - जनक होने से क्रियाधार है' । उपवास क्रिया में आधार -- से आकाश तथा काल की अधिकरणता के ही प्रसंग में भर्तृहरि ने पाणिनि के 'उपान्वध्याङ्ग्वसः' ( पा० १।४।४८ ) के अन्तर्गत आये हुए वार्तिक 'वसेरश्यर्थस्य प्रतिषेधः' के उदाहरण का भी विचार किया है। उक्त सूत्र में वस् धातु ( निवास करना) के ( परम्परित ) आधार को कर्म माना गया है, यदि उसके पूर्व में उप, अनु, अधि, आङ् – इनमें कोई उपसर्ग लगा हो । यहीं पर वार्तिककार कात्यायन संशोधन उपस्थित करते हैं कि अशननिवृत्ति के अर्थ में उप + वस्-धातु हो तो कर्मसंज्ञा नहीं होती, आधार के कारण अधिकरण ही होता है; जैसे - ग्रामे उपवसति । कात्यायन का विशेष अभिप्राय यही है कि जैसे 'तिष्ठति' क्रिया से गति-निवृत्ति से विशिष्ट अवस्थिति का बोध होता है वैसे ही यहाँ 'उपवसति' का अर्थ भी 'भोजननिवृत्ति से विशिष्ट वास' है । तदनुसार ग्राम से उपवास का उसी प्रकार सम्बन्ध है जैसे ' तिष्ठति' से ( ग्रामे तिष्ठति ) हो सकता है । अतः सूत्रविहित कर्मसंज्ञा की निवृत्ति हो जाती है। ग्राम की विवक्षा यहाँ ईप्सिततम के रूप में नहीं, आधाररूप में हैअर्थात् यह वार्तिक विवक्षा - नियम का भी समर्थन करता है । किन्तु पतञ्जलि इस वार्तिक से सहमत नहीं है। उनका कथन है कि यहाँ ग्राम उप-पूर्वक वस्-धातु का अधिकरण नहीं है, वह तो उपसर्ग-हीन वस्-धातु का ही अधिकरण है । इसी से ' ग्रामे वसंस्त्रिरात्रमुपवसति' यह उदाहरण वे देते हैं ( भाष्य, १।४।४८ ) । उनका आशय यह है कि ग्राम का सीधा सम्बन्ध वास-क्रिया के साथ है, क्योंकि इनमें अन्तरङ्ग सम्बन्ध है । उपवास - क्रिया चूंकि स्वरूपतः काल की अपेक्षा रखती है अत: उसका अन्तरङ्ग सम्बन्ध काल के ही साथ हो सकता है, ग्राम के साथ तो उसका बहिरङ्ग -सम्बन्ध है । हेलाराज इस स्थिति का विश्लेषण करते हैं कि यद्यपि उपवास - क्रिया के साथ काल- विशेष ही अन्तरङ्ग होता है तथापि भोजन न करने वाले पुरुष की निरधिकरण अवस्थिति असम्भव है । अत: आधार की अपेक्षा १. व्याकरण-दर्शन में काल तथा आकाश ये दोनों ईश्वर की शक्तियाँ हैं । चूंकि वहीं इस संसार को शब्दब्रह्म का विवर्त माना गया है, जिसमें दो प्रकार की व्यवस्था है - मूर्ति ( ठोस पदार्थ ) तथा क्रिया ( साध्य भाव ), अतः व्यावहारिक दशा में अनेक प्रकार के भेदों की प्रतीति होती है । प्रथम दशा में केवल शब्दब्रह्म की सत्ता होती है जिसमें कालाकाश की एकत्वनिष्ठ शक्तियाँ रहती हैं । मूर्त पदार्थों और क्रियाओं के रूप में विवर्त होने का कारण कालाकाश का एकत्व ही है । जब विवर्त होता है तब यही एकत्व हमें भेदों के रूप में प्रतीत होने लगता है । २. द्रष्टव्य -- हेलाराज ( ३।७।१५३ पर ), पृ० ३५२ । ३. द्रष्टव्य - प्रदीप तथा उद्योत, पृ० २६० ( खण्ड २ )

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