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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
धनु:खण्डम्' । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जगदीश ने वल्मीक का अर्थ परम्परा से हटकर 'सातपमेघ' किया है।
'हिमवतो गङ्गा प्रभवति' का शाब्दबोध इस प्रकार कराते हैं--'हिमवदपादानको गङ्गाकर्तृकः प्रथमः प्रकाशः' । तदनुसार यह भी अर्थ हो सकता है कि हिमालय से निकलती हुई गंगा प्रकाशित होती है।
उपसंहार पाणिनि के द्वारा अपादान-संज्ञा के विधान के लिए दिये गये ये सूत्र अनेक वैयाकरणों को आवश्यक प्रतीत हुए हैं । दीक्षित ने शब्दकौस्तुभ में इस 'सप्तसूत्री' की व्याख्या के अनन्तर पतंजलि के विचारों का संक्षेप में निदर्शन करके उनका प्रत्याख्यान किया है । उनका कथन है कि निवृत्ति, विस्मरण आदि दूसरे धातुओं के अर्थ से विशिष्ट अपाय का आश्रय लेकर ( तथाकथित उपात्तविषय अपादान के अन्तर्गत ) किसी-किसी प्रकार उपर्युक्त प्रयोगों का हम समर्थन भले ही कर लें, किन्तु वैसी दशा में 'नटस्य शृणोति' के समान धातु के मुख्यार्थ के आधार पर षष्ठी-विभक्ति का वारण नहीं किया जा सकता । 'उपाध्यायादधीते' और 'नटस्य शृणोति' इन दोनों में शब्द के निःसरण के अनुकूल व्यापार तो समान ही है, कोई भेद तो है नहीं। इसी प्रकार अपक्रमण, निवृत्ति, अपगमन इत्यादि अपायार्थक क्रियाओं का आश्रय लेकर 'सप्तसूत्री' के प्रयोगों का अपाय में अन्तर्भाव का जो पातंजल-प्रयास हुआ है, वह षष्ठी के दुर्वार प्रयोग का प्रयोजक है। अनभिधान ( विद्वानों के द्वारा प्रयुक्त न होना ) रूप अमोघ अस्त्र का आश्रय लेकर षष्ठी का निषेध करना शोभाजनक नहीं है। इसी से 'जुगुप्सा' इत्यादि वार्तिक भी अनिवार्य हैं । इस प्रकार अपादान के संज्ञी हुए-ध्रुव, भयहेतु, अ. 3 इत्यादि । परत्व के कारण दूसरी संज्ञाओं की प्राप्ति होने पर भी शेषत्व की विव में 'न माषाणामस्तीयात्' के समान षष्ठी हो सकती है और ऐसे स्थल में अपाद। -संज्ञा के वारण में कोई आपत्ति नहीं होगी।