Book Title: Sanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Author(s): Umashankar Sharma
Publisher: Chaukhamba Surbharti Prakashan

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Page 313
________________ अधिकरण-कारक २९३ है। हमें इस प्रकार का अनुभव भी होता है कि उक्त उदाहरण में काल चैत्र तथा तण्डुल ( जो क्रमशः कर्ता तथा कर्म हैं ) दोनों का आधार है । यदि क्रिया के साक्षात् आधार के रूप में काल की विवक्षा हो तो 'काल: भूतानि पचति' ऐसा प्रयोग होगा अर्थात् वह कर्ता हो जायगा । परिणामतः अधिकरण का क्रिया के साथ अन्वय कर्तादि के अन्वय के माध्यम से ही होता है, क्योंकि जिसका कारक-भाव ( कारकत्व ) जिसके माध्यम से होता है उसका क्रिया के साथ अन्वय भी उसी के माध्यम से होगायह शास्त्रीय व्यवस्था है। आकाश तथा काल का आधारत्व भर्तहरि अधिकरण-विवेचन के प्रसंग में आकाश तथा काल के आधारत्व का भी निरूपण करते हैं। उनके अनुसार सभी संयोगदान पदार्थों का आदि आधार आकाश ही है । ग्रह, नक्षत्र, विमानादि आकाशीय पदार्थों का आधार तो प्रत्यक्षतः आकाश है ही; रथादि पार्थिव पदार्थों के आधार जो हम पृथ्वी का भाग-विशेष देखते हैं वह भी अन्ततः परम्परया आकाश पर ही आधृत है। इसीलिए सभी संयोगी पदार्थों का प्रथम आधार आकाश को मानने में कोई आपत्ति नहीं है २ । हेलाराज न केवल संयोगी पदार्थों का अपितु समवायी पदार्थों का भी पार्यन्तिक आधार आकाश को ही सिद्ध करते हैं, क्योंकि उनका तात्कालिक आधार तो अपने ही अवयव हैं और अन्त में परमाणुओं तक पहुँचा जा सकता है । इन परमाणुओं के बीच देशगत विभाग का कारण आकाश ही आधार-रूप में है। इस प्रकार वैशेषिकों के अपर सामान्य ( सत्ता ) के समान आकाश अपर या मुख्य अधिकरण का पद ले सकता है । यहाँ देशगत प्रविभाग करना आकाश का प्रधान कार्य समझना चाहिए, अन्यथा एकत्व-संख्या से विशिष्ट नित्य आकाश में विभिन्न पदार्थों के आधेय-रूप में अवस्थित किसी सूत्र में मुख्य स्वरित का प्रयोग करके पाणिनि यह दिखलाना चाहते हैं कि तत्रत्य नियम अपने निश्चित कार्य से अधिक कार्य को व्याप्त करता है; जैसे अपादान या अधिकरण की व्याप्ति मुख्य अपादानादि के अतिरिक्त गौण में भी होती है । तदनुसार जहाँ सम्पूर्ण आधार-स्वरूप व्याप्त होता है (तिलेषु तैलम्, दध्नि सपिः ) केवल वहीं अधिकरण नहीं होता प्रत्युत लाक्षणिक, सामीपिक इत्यादि आधार भी अधिकरण ही हैं, यह स्वरित का प्रसाद है । यह अधिक कार्य ( अधिकार ) सूचित करना इस सूत्र का उद्देश्य है । यहाँ भी इस प्रतिज्ञा के आधार पर 'आधार' शब्द से परम्पराधार का ग्रहण होता है। १. 'यद्यपि कालस्य साक्षात्क्रियापरिच्छेदकत्वं, तथापि तदधिकरणं कर्तकर्मद्वारैव, तथैवानुभवात् । साक्षात्तदाधारत्वेऽपि ( आधारपदे ) स्वरितत्वप्रतिज्ञानात्परम्पराधारस्य ग्रहणम्' । -ल० श. शे०, पृ० ४७७ २. 'आकाशमेव केषाञ्चिद् देशभेदप्रकल्पनात् । आधारशक्तिः प्रथमा सर्वसंयोगिनां मता' ॥ -वा०प० ३।७।१५१

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