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पराजयते' में पंचमी का वारण करना है वह अन्यथा भी ( परत्व के कारण कर्मसंज्ञा के द्वारा अपादानसंज्ञा का बाध होने से ) सिद्ध हो जाता है । इसका समाधान ज्ञानेन्द्र सरस्वती करते हैं कि जहाँ कर्मत्व की विवक्षा नहीं होगी, वहाँ शेष षष्ठी को रोककर पंचमी प्राप्त हो सकती थी । इसके वारणार्थ 'असोढ' की उपस्थिति सूत्र में अनिवार्य है ।
अपादान कारक
नागेश नव्यन्याय की विश्लेषण-पद्धति स्वीकार कर इन सारी शंकाओं का समाधान अत्यन्त सूक्ष्मेक्षिका से प्रस्तुत करते हैं । उक्त उदाहरण में धातु का अर्थ है - कृति ( प्रयत्न ) की असाध्यता के ज्ञान के समानाधिकरण तद्विषयक ( अध्ययन के विषय में) उत्साह का अभाव । जिस व्यक्ति को अध्ययन की असाध्यता का ज्ञान है, उसी में अध्ययन के प्रति उत्साह का अभाव भी है । विषय ही यहाँ अपादान है अर्थात् पराजय ( असह्यता ) अध्ययन को विषय बनाकर हो रही है, यह अपादान है । इस मत से शाब्दबोध इस रूप में होगा -- ' अध्ययनापादानको देवदत्तकर्तृक उत्साहाभावः' । नागेश प्रकारान्तर से 'तत्पूर्वक निवृत्ति' के रूप में धात्वर्थ मानते हैं । आशय यह है कि उत्साहाभाव के अनन्तर विषय से निवृत्त हो जाना यहाँ धात्वर्थ है । यह भाष्यकार के मत का समर्थन है, जब कि पूर्व प्रकार सूत्रकार के मत से सम्बद्ध है । 'शत्रून्परा - जयते' में धातु का वही अर्थ नहीं है जो यहाँ है । इसमें पराजय का अर्थ है - तिरस्कार के अनुकूल ( जनक ) व्यापार । यही कारण है कि, फल और व्यापार का आश्रय भिन्न होने से क्रिया यहाँ सकर्मक है, व्यापाराश्रय कर्ता तथा फलाश्रय ( शतृ ) कर्म है ।
नैयायिकों ने पूर्व उदाहरण में अनिष्ट को धात्वर्थ माना है । तदनुसार शाब्दबोध होता है - अध्ययन से उत्पन्न होने वाला अनिष्ट । नागेश इसका प्रत्याख्यान करते हैं कि - (१) हमें इस प्रकार के बोध का अनुभव नहीं होता - अध्ययन से अनिष्ट हो रहा है यह जानकर कोई उससे भागे, ऐसा बोध नहीं देखते हैं । ( २ ) पुन: 'असोढ' शब्द से इस नैयायिक सम्मत अर्थ की प्राप्ति नहीं होती । पतंजलि ने तो यहाँ तक कहा है कि व्यक्ति अपने मन में ही अध्ययन की असाध्यता तथा दुर्धरता का विचार करके उससे दूर हो जाता है; इस प्रकार अध्ययन के सर्वथा अप्रवृत्त रहने ( प्रारम्भ नहीं होने ) पर भी ऐसा प्रयोग हो सकता है । ( ३ ) अन्त में, जो अध्ययन आरम्भ भी नहीं हुआ है (असत् है ) वह भी अनिष्ट उत्पन्न करने लगेगा । कार्यं उत्पन्न करने के लिए कारण की सत्ता आवश्यक होती है । प्रकृत उदाहरण में असत् अध्ययन से अनिष्ट की प्राप्ति का प्रसंग हो जाने से यह न्याय-मत भ्रामक है ।
( ३ ) वारणार्थानामीप्सितः ( १/४/२७ ) - वारणार्थक धातुओं के प्रयोग में
१. ‘वस्तुतस्तु असोढग्रहणं व्यर्थम्, शत्रून्पराजयते इत्यत्र परत्वात्कर्मसंज्ञासिद्धेः' । - श० कौ० २, पृ० ११८
२. तत्त्वबोधिनी, पृ० ४५३ ।