Book Title: Sanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Author(s): Umashankar Sharma
Publisher: Chaukhamba Surbharti Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 301
________________ अपादान-कारक २८१ 'ईप्सिततम' का प्रयोग है । वहाँ प्रकर्ष-विवक्षा है । कर्मसंज्ञा का अवकाश वारणार्थभिन्न धातुओं में है, अपादान का अवकाश प्रकर्षहीन ईप्सित पदार्थ में है । जहाँ दोनों प्रसक्त हों तब वहाँ ईप्सिततम में परत्व के कारण कर्मसंज्ञा ही होती है । अन्त में भाष्यकार इस सूत्र को 'ध्रुव'-सूत्र के अन्तर्गत रखते हुए कहते हैं कि विवेकी पुरुष विचार करता है कि ये गायें यदि खेतों में घुस जायँगी तो शस्य-विनाश होगा, जिससे अधर्म और राजदंड दोनों मिलेंगे । यही सोचकर वह इन्हें माषों के सम्पर्क में आने के पूर्व ही पृथक् कर देता है। यहाँ भी निवृत्ति का अंग वारणक्रिया है। अब हम नागेश की चिन्तन-प्रक्रिया से इन उदाहरणों का विश्लेषण देखें । 'यवेभ्यो गां वारयति, अग्नेर्माणवकं वारयति, कूपादन्धं वारयति'-- इन तीनों में क्रिया का अर्थ है-भक्षण, संयोगादि फलों को उत्पन्न करने वाले व्यापार के अभाव के अनुकूल व्यापार ( ल० श० शे०, पृ० ४५३ ) । प्रथम उदाहरण में गायों के द्वारा यव-भक्षण होना फल है, इसे उत्पन्न करने वाले व्यापार का ( जैसे गायों का निर्विघ्न जाने देना या उसी ओर प्रेरित करना ) अभाव जिस रूप में भी हो, ऐसे व्यापार ( कार्य ) का ही बोध 'वारयति' से होता है। अन्य उदाहरणों में 'संयोग' ( अग्नि-संयोग, कृपसंयोग ) फल के रूप में हैं । इसे उत्पन्न करने वाले व्यापार के अभाव के योग्य व्यापार को यहाँ धात्वर्थ लेना चाहिए । अन्य फलों के लिए भी. अवकाश रखने के लिए 'आदि' शब्द का प्रयोग हुआ है। ___अभाव के प्रतियोगी व्यापार से उत्पन्न होने वाले फल का आश्रय यहां ईप्सित (अपादान ) है । वारण-क्रिया व्यापार से उत्पन्न भक्षण तथा संयोग-रूप फल यथाशक्ति यव, अग्नि तथा कूप में निहित हैं। इन फलों के वे आश्रय हैं, इसीलिए नागेश के अनुसार वारणार्थ-धातु के अर्थ के फल का आश्रय ही ईप्सित है ( ल० म., पृ० १२९५)। ईप्सित-शब्द से प्रधान अथवा अप्रधान दोनों में से किसी एक के व्यापाराश्रयमात्र का ग्रहण किया जाता है । कर्म के लक्षण में तमप्-प्रत्यय का ग्रहण होने से प्रकृत धात्वर्थ के फलाश्रय का बोध होता है ( ल० श० शे०, पृ० ४५४ )। 'वारयति' का अर्थ देने में नागेश 'अनुकूल व्यापार' का प्रयोग करते हैं। इस अनुकूल का अर्थ है कि वह ऐसा करने में सर्वथा समर्थ है ( अनुकूलता= योग्यता )। इसका फल यह हुआ कि प्रतिषिद्ध होने पर भी गाय जब जौ के पौधों को खाती ही जाती है, मानती नहीं तब भी ऐसा प्रयोग हो सकता है- 'अयं वारयति, तथापि न निवर्तते' । यहां भक्षण-जनक व्यापार का सर्वथा अभाव नहीं हो रहा है तथापि व्यापार का अभाव लाने की योग्यता तो वारणकर्ता में है ही, इसी आधार पर यह प्रयोग हुआ है। इसी प्रकार जब गाय ने चरना आरम्भ नहीं किया हो उस समय भी उसका वारण ( अप्रवृत्त-वारण ) करने में यह प्रयोग समर्थित हो सकता है। नागेश की यह व्याख्या अनेक शंकाओं का समाधान करके सभी उदाहरणों का समावेश कर सकती १. कयट २, पृ० २५२ ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344