________________
अपादान-कारक
२६७
तो वृक्ष और पर्ण दोनों हैं, अत: उभयत्र समान रूप से प्रसक्त होनेवाले अपादान का पर्ण में अतिव्याप्ति-वारण के लिए पूर्व विशेषण लगाया गया है।
वस्तुस्थिति यह है कि पत्-धातु वृक्ष और पर्ण में विभाग उत्पन्न करता है, दोनों ही इस विभाग के आश्रय हैं। किन्तु पर्ण विभागाश्रय होने के साथ-साथ विभागजनक क्रिया ( पतन ) का भी आश्रय है। सारांशतः पर्ण विभाग का कर्ता है, जब कि वृक्ष नहीं । अतः वृक्ष विभागजनक व्यापार का आश्रय नहीं होने से अपादान है।
परमलघुमञ्जूषा में अपादान-निर्वचन की दूसरी ही प्रक्रिया देखी जाती है'तत्तत्कर्त समवेत-तत्तत्क्रियाजन्य-प्रकृतधात्ववाच्यविभागाश्रयत्वमपादानत्वम्'। 'चैत्रो ग्रामादायाति' में चैत्र कर्ता है, उत्तरदेशसंयोगानुकूल क्रियाएँ ( चरणप्रक्षेपादि ) उसी कर्ता में समवेत हैं, क्योंकि क्रिया और क्रियावान् में अयुतसिद्धि होने के कारण समवाय सम्बन्ध है । ये क्रियाएँ विभागजनक हैं। यहाँ प्रकृत धातु ( या = जाना ) का विभाग के साथ वाच्य-वाचक-भाव नहीं है, आना-जाना विभागजनक है, किन्तु उसके वाचक नहीं। अतः विभाग उक्त क्रियाओं से उत्पन्न होने के साथ-साथ धातु से अवाच्य भी है। ऐसे ही विभाग का आश्रय अपादान है । हम जानते हैं कि प्रकृत धातु से वाच्य व्यापार का आश्रय कर्ता ही हो सकता है। वैसे 'अपादानमुत्तराणि कारकाणि बाधन्ते' इस नियम से ही अपादान की प्रवृत्ति कर्ता रोक देता है। ___'तरुं त्यजति खगः' में भी विभाग का बोध होता है, किन्तु दोनों विभागाश्रयों में कोई भी अपादान नहीं है, क्योंकि यहां त्यज्-धातु का वाच्यार्थ ही विभाग है। अतः प्रकृत धातु से वाच्य विभाग-व्यापार का आश्रय होने से खग कर्ता है तथा उक्त विभाग-व्यापार का फलतावच्छेदक सम्बन्ध से आश्रय होने से तरु कर्म है। यहां भी परत्व के कारण कर्मसंज्ञा अपादान को बाधित करेगी-यह युक्ति देना सम्भव है। इस लक्षण के अनुसार अपादान की अनिवार्यताएँ इस प्रकार हैं
(१) विभाग का आश्रय होना। (२) विभाग की क्रियाजन्यता ( वैशेषिकानुमोदित )। (३) उक्त क्रिया का कर्ता में समवेत होना । (४) विभाग का प्रकृत धातु से अभिधेय न होना ।
'परस्परस्मान्मेषावपसरतः' में प्रत्येक मेष अपनी पारी ( turn ) आने पर अपादान है । एक ( मेष ) में समवेत क्रिया से उत्पन्न विभाग का आश्रय दूसरा ( मेष ) है-यही 'तत्तत्' का तात्पर्य है । अतएव दोनों ही बारी-बारी से अपादान हैं और इसीलिए दोनों मेषों के लिए बारी-बारी से प्रयुक्त 'परस्पर' अपादान होने के कारण पञ्चमी ग्रहण करता है। इसके अतिरिक्त मेष तथा परस्पर-इन दोनों शब्दों के अर्थों में औपाधिक या कृत्रिम भेद मानकर कारक-व्यवस्था की जाती है। 'मेष' पद के वाच्यार्थ के रूप में जो दो पशु-विशेष हैं उन्हें क्रियाश्रय अर्थात् कर्ता मानने की विवक्षा है । दूसरी ओर 'परस्पर' शब्द के वाच्यार्थ के रूप में जो वही पशुविशेष हैं, उनकी विभागाश्रयत्व ( अपादानत्व )-विवक्षा है। इस प्रकार एक ही पदार्थ शब्दगत