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अपादान-कारक
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भेदज्ञान का भी विषय है। कहने का अर्थ है कि विदारण से भौतिक तथा बौद्धिक दोनों प्रकार के भेद व्यक्त होते हैं। 'घटाद्भिन्नः' में बौद्धिक भेद से अपादान हुआ हैं। एकत्व के रूप में यदि वस्तु का ग्रहण किया जाय तथा भौतिक दृष्टि से भेदज्ञान नहीं हो तो भी इस बौद्धिक भेद का आश्रय लेकर अपादानत्व-व्यवस्था की जा सकती है । भिन्न शब्द के ही पर्याय 'अन्य' के साथ अपादान नहीं होता, क्योंकि 'घटादन्यः' में कोई क्रिया इसके कारकत्व का समर्थन करने के लिए नहीं है । इसीलिए क्रिया के अभाव में 'घट: पटो न' में भी पंचमी नहीं होती। नत्र का अर्थ भेदात्मक रहने पर भी वह क्रियारूप नहीं है। 'घटादन्यः' को तो 'अन्यारादितर०' (पा० २।३।२६ ) से उपपदरूप पंचमी-विभक्ति की प्राप्ति भी हो जाती है, 'घट: पटो न' में वैसा भी कुछ नहीं है।
(ख ) उपात्तविषय अपादान-जहाँ वाक्यगत धातु ऐसे स्वार्थ को प्रकट करे जो दूसरे धातु के अर्थ का अंग हो वहाँ उपात्तविषय अपादान होता है। दूसरे धातु का अर्थ प्रधान भी हो जा सकता है और गौण भी । यथा-'बलाहकाद् विद्योतते' ( मेघ से ज्योति चमकती है ) । द्युत्-धातु का अर्थ है विद्योतन ( चमकना) । यह निःसरणक्रिया का अंग है अर्थात् मेघ से निकल कर ज्योति चमकती है ( बलाहकान्निःसृत्य ज्योतिर्विद्योतते )-यह अर्थ निकलता है। इस प्रकार निःसरण-क्रिया मुख्य हो गयी है ( क्योंकि इसी पर अपादान आश्रित है ) और विद्योतन-क्रिया गौण है।
हेलाराज इन विद्योतन की अवान्तर क्रियाओं का परस्पर अंगांगिभाव मानते हैं। या तो निःसरण के अंग के रूप में विद्योतन है ( ऊपर की तरह ) या विद्योतन के अंग के रूप में निःसरण है ( बलाहकाद् विद्योतमानं ज्योति: निःसरति ) । इसी अर्थ में विद्युत्-धातु का प्रयोग है। इस प्रकार निःसरण पर आश्रित अपाय विद्योतनक्रिया की प्रधान या गौण दशा में उपात्त होता है। नागेश इस क्रिया का अर्थ लेते हैं—विभागजन्य संयोग के अनुकूल क्रिया के रूप में निःसरण के पश्चात् विद्योतनव्यापार । इसलिए उक्त प्रयोग का शाब्दबोध भी इसी दृष्टि से किया जा सकता है'बलाहकापादानक-विभागजन्य-संयोगानुकूल-क्रियोत्तरकालिकं विद्युत्कर्तृकं विद्योतनम् ।
( ल० म०, पृ० १२९०) मेघ में धूम, ज्योति, सलिल तथा वायु का संघात है । जब किसी व्यक्ति को मेघ के अवयवरूप ज्योति के भेद की विवक्षा होती है तो इसमें विभाग विवक्षित होने से मेघ अवधि बन जाता है । पुनः यदि मेघ ज्योति के आधार के रूप में विविक्षित हो तो
१. तुलनीय-ल० म०, पृ० १२९१ । २. ल० श० शे०, पृ० ४५६ ।
३. 'उपात्तः क्रियान्तरस्य गुणभावेन प्रधानभावेन वा यत्रापायलक्षणो विषयस्तदुपात्तविषयम्'।
-हेलाराज ३, पृ० ३३८ ४. 'अत्र हि निःसरणाङ्गे विद्योतने, विद्योतनाङ्गे वा निःसरणे विद्युतिर्वर्तते इति निःसरणलक्षणोऽपायो विद्योतनस्य गुणप्रधानभावेनोपात्तः ।