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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
'बलाह के विद्योतते' इस रूप में अधिकरण - सप्तमी भी होती है । अन्त में, यदि कोई मेघ और ज्योति की अभेद-विवक्षा करे कि ज्योतिःस्वरूप ( तेजोमय ) होने के कारण इसमें प्रकाशन की सामर्थ्य है तथा जलादि अङ्गीभूत पदार्थ इस प्रकाशन के प्रतिबन्धक के रूप में विवक्षित न हों तब 'बलाहको विद्योतते' ऐसा प्रयोग होता है । यहाँ क्रिया का स्वाधीन आश्रय होने की पूर्ण क्षमता मेघ में विद्यमान है । ( नागेश, वहीं ) ।
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इस अपादान के दूसरे उदाहरण हैं- कुसूलात्पचति ( कोठी से निकाल कर पकाता है ) । यहाँ पच्-धातु का अर्थ है आदान का अङ्गभूत पाक । आदान-क्रिया प्रधान है जो सीधे अपाय से सम्बद्ध है - कुसूलादादाय पचति । इसी प्रकार 'ब्राह्मणात् शंसति' में शंस्-धातु का अर्थ ग्रहण - क्रिया का अंग है, इसलिए अर्थ है - 'ब्राह्मणाद् गृहीत्वा शंसति । पतञ्जलि इसे उपात्तविषय अपादान के रूप में लेते हैं, जबकि कात्यायन 'ब्राह्मणाच्छंसी' शब्द में द्वितीया के अर्थ में पंचमी मानकर उसका अलुक् करते हैं।
( ग ) अपेक्षितक्रिय अपादान -- जहाँ क्रियापद श्रुतिगोचर नहीं हो प्रत्युत प्रतीयमान हो वहाँ अपाय के विषय को अपेक्षितक्रिय अपादान कहते हैं । क्रिया की प्रतीति वाक्य श्रूयमाण पदों से ही होती है । जैसे- 'सांकाश्यकेभ्यः पाटलिपुत्रकाः अभिरूपतराः' । यहाँ 'विभक्ता:' इस क्रियापद की प्रतीति होती है । प्रकर्ष की प्रतीति होने के कारण यहाँ विभाग का हेतु है 'सांकाश्यक' । अतः अपाय का बोध करानेवाली अपकर्षण-क्रिया अनुमित होती है ( हेलाराज, पृ० ३३९ ) । उपात्तविषय अपादान में धातु के द्वारा ही अपाय सूचित होता है, जब कि यहाँ क्रिया अपेक्षित या प्रतीयमान होती है । इस अपादान के विषय में दीक्षित ( श० कौ, ११७ ), कौण्डभट्ट ( वै० भू०, १११ ) तथा नागेश ( ल० म०, पृ० १२९० ) तीनों समान लक्षण और उदाहरण देते हैं - किसी के प्रत्यक्ष आगमन को मन में रखकर कोई से ( कुतो भवान् ) ? इसका उत्तर होता है - पाटलिपुत्र से । दोनों वाक्यों में आगमन-क्रिया अपेक्षित है। किसी अनिवार्य विषय का उपादान नहीं होने से आकांक्षा
पूछता है आप कहाँ
१. 'ब्राह्मणानि ग्रन्थविशेषरूपाणि यः शंसति स कथ्यते ब्राह्मणाच्छंसीति वृत्तिविषयेऽत्र द्वितीयार्थे पञ्चमी वक्तव्या । भाष्यकारस्तु ब्राह्मणाद् गृहीत्वा आहृत्य शंसतीत्याहरणाङ्गे शंसने शं सर्वर्तते इत्युपात्तविषयमेतदपादानं मन्यते ' ।
- हेला० ३, पृ० ३३८-३९ भाष्य ( ६।३।२ ) २. 'यत्र क्रियावाचि पदं न श्रूयते, केवलं क्रिया प्रतीयते' ।
३. तुलनीय - 'बुद्धया समीहितैकत्वान्पञ्चालान्कुरुभिर्यदा । पुनर्विभजते वक्ता तदापायः प्रतीयते' ||
— कैयट २, पृ० २४८
- वा० प० ३।७४