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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
दोनों के असमानाधिकरण होने पर होता है) । ( ३ ) 'धर्माद्विरतोऽपि पुनः प्रवृत्तः ' ऐसे प्रयोग भी इसीलिए नहीं हो सकेंगे । इनसे बचने का उपाय नागेश की विरतिव्याख्या है, जिसमें क्षणिक, स्थायी सभी प्रकार की विरतियाँ समाविष्ट हैं ।
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'धर्मात्प्रमाद्यति' में प्र + मद्-धातु का अर्थ है इष्टसाधनरूप पदार्थ ( धर्मं ) में समान देश और समान काल— इन दोनों सम्बन्धों से अधिकार - विशिष्ट इष्टसाधनता के अभाव का ज्ञान । अथवा संक्षेप में कह सकते हैं कि अनिष्ट साधनता का ज्ञान ही यहाँ धात्वर्थ है | ज्ञान से अन्वित होनेवाली विषयता पंचमी का अर्थ है । वैसे पूरे वार्तिक का ही इस दृष्टि से अर्थ होगा - जुगुप्सादि की विवक्षा जिसे विषयीभूत बनाकर की जाय वह भी अपादान होता है ।
पतञ्जलि ने 'सांकाश्यकेभ्यः पाटलिपुत्रका अभिरूपतराः' यह उदाहरण भी बौद्ध अपाय के प्रदर्शनार्थ दिया है । यह वाक्य उसी के द्वारा प्रयुक्त होता है जो व्यक्ति पहले से ही सांकाश्य तथा पाटलिपुत्र के निवासियों के समान गुणों का ज्ञान रखता है और अब प्रकर्ष का आश्रय लेकर एक को पृथक् करके कुछ कहना चाहता है । यहाँ गम्यमान क्रिया का आक्षेप करके कारकत्व की व्यवस्था होती है । इसे अपादान के तीन भेदों में अन्यतम - अपेक्षितक्रिय - मानते हैं । कैयट ने इस उदाहरण की व्याख्या में तीनों भेदों का वर्णन किया है ( खण्ड २, पृ० २४८ ) ।
अपादान के भेद
अपादान के भेदों का प्रचार परवर्ती सूत्रों को प्रपंच मानने वालों ने किया है । वे सभी प्रकार के अपादानों को इन तीन भेदों में ही गतार्थ करते हैं - निर्दिष्टविषय, उपात्तविषय तथा अपेक्षितक्रिय । इनका सर्वप्रथम उल्लेख वाक्यपदीय ( ३।७।१३६ ) में हुआ है। अब हम क्रमशः इनका निरूपण करें ।
( क ) निर्दिष्टविषय अपादान - जहाँ धातु के द्वारा साक्षात् विभाग का निर्देश हो वहाँ इसी प्रकार का अपादान होता है । इसमें अपदान का विषय ( अपाय ) अपने शब्द से ( स्वधातु द्वारा ) व्यक्त किया जाता है; जैसे -- ' ग्रामादागच्छति, पर्वतादवरोहति अश्वात्पतति' । इन उदाहरणों में स्ववाक्य में प्रयुक्त धातु के ही द्वारा विश्लेष प्रकट हो रहा है नागेश के मत में 'घटाद्भिन्न:' में भी इसी प्रकार का अपादान है, क्योंकि सूत्रगत अपाय - शब्द का अर्थ 'भेद' भी है। जिस प्रकार 'पञ्चमी विभक्ते ( पा० २।३।४२ ) में विभक्त का अर्थ भेद है उसी प्रकार जब कभी भी भेदमूलक सम्बन्ध अभिव्यक्त करने की इच्छा वक्ता में हो तो घटगत भेद भी उसका विषयक्षेत्र बन सकता है । धातुपाठ में जो 'भिदिर् विदारणे' पढ़ा गया है वहाँ विदारण
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१. द्रष्टव्य – (क) 'यत्र धातुनापायलक्षणो विषयो निर्दिष्टः ' ।
- उद्योत, पृ० २४८ (ख) 'यत्र साक्षादधाना गतिर्निर्दिश्यते तन्निर्दिष्टविषयम्' । - जै० भू०, पृ० १११