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अपादान कारक
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'पर्वतात्पततोऽश्वात्पतति' में औपाधिक भेद कुछ नहीं कर सकता, अपादानत्व-सिद्धि का भार पूर्व अंश पर ही है । एक ही पदार्थ विभिन्न पदार्थों के सम्पर्क से बारी-बारी से कर्ता और अपादान दोनों हैं -- पर्वत के अपादानत्व की स्थिति में अश्व कर्ता है और अश्व के अपादानत्व की दशा में अश्ववाह कर्ता है । शास्त्रीय शैली में कहेंगे कि अश्व में समवेत क्रिया से जन्य तथा प्रकृत धातु के अवाच्य रूप विभाग का आश्रय होने से पर्वत अपादान है । दूसरी ओर अश्ववाह में समवेत क्रिया से जन्य तथा प्रकृत धातु के अवाच्यरूप विभाग का आश्रय होने से अश्व भी अपादान है' ।
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'प्रकृत धात्वर्थ' का तात्पर्य धातुगत शब्द से गृहीत अर्थ नहीं, प्रत्युत नागेश विवक्षित अर्थ को धात्वर्थ मान रहे हैं । यही कारण है कि 'धनुषा विध्यति' में अपादान-संज्ञा को रोक कर करण-संज्ञा होती है । वास्तव में यहाँ दो क्रियाएँ हैं( १ ) धनुष से बाण का निःसरण तथा ( २ ) बाण द्वारा लक्ष्य का वेध | 'विध्यति' में जो 'व्यध-धातु' है उसका यहाँ विवक्षित अर्थ है - निःसरणजन्य वेध | यदि बाणनिःसरण पर दृष्टि रखते हैं तो धनुष अवधि ( ध्रुव ) हो जायगा, किन्तु यदि व्यधनक्रिया पर ध्यान दें तो वह करण हो जाता है । इस प्रकार विवक्षितार्थं का ही ग्रहण करने से दोनों कारकों की उपस्थिति निमित्त रूप में हो पाती है तथा विप्रतिषेध-परिभाषा को अपनी शक्ति दिखलाने का अवसर मिलता है । यदि केवल शब्दोपात्त अर्थ का ग्रहण करते तो असंगति होती, क्योंकि धनुष से तो किसी का वेध नहीं हो
सकता ।
नैयायिकों के विभागाश्रयत्व मत का खण्डन
नागेश अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणों के अतिरिक्त नव्य-न्याय में भी तत्काल प्रचलित अपादानत्व-निर्वचन का निरसन करते हैं । उनके विवेचन का पूर्वपक्ष न्यायमत का सारांश देता है । नैयायिक विभाग को पंचम्यर्थ मानकर प्रकृति-प्रत्यय के अर्थों के संसर्ग को आश्रयता कहते हैं। विभाग का इस प्रकार जन्यजनकभाव से धात्वर्थ में अन्वय होता है । यह सारांश वस्तुतः नैयायिकों के 'विभागाश्रयत्वमपादानत्वम्' के विश्लेषण पर आश्रित है । गदाधर पंचमी में शक्तिद्वय मानते हुए कहते हैं कि 'वृक्षात्पर्ण पतति' में जो प्रकृत्यर्थ वृक्ष है उसका भेद तथा विभाग दोनों में आधेयतासम्बन्ध से अन्वय होता है । दूसरे शब्दों में- आधाररूप वृक्ष के आधेय रूप में भेद तथा विभाग दोनों ही हैं । गदाधर के विवेचन को नागेश सरलतम शब्दों में रखते हैं । गदाधर आगे चलकर कहते हैं कि विभाग तथा जनकत्व दोनों ही पंचम्यर्थ हैं, जो
१. प० ल० म० ( ज्योत्स्ना ), पृ० १८५ ।
२. ल० म०, पृ० १२८९ ।
३. तुलनीय ( कारकचक्र, पृ० ६३ ) – 'परकीय क्रियाजन्यविभागाश्रयत्वम्' । तथा - ( व्यु० वा०, पृ० २५२ ) - ( स्वनिष्ठ भेदप्रतियोगितावच्छेदकीभूत-क्रियाजन्यविभागाश्रयत्वम्' । १९ सं०