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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
परस्पर अनुस्यूत हैं । विभाग के प्रति प्रकृत्यर्थ का सम्बन्ध 'अवधिक' रूप में रहता है; यथा-वृक्षावधिक । इसी सम्बन्ध के द्वारा प्रकृत्यर्थ से विशिष्ट विभाग का अन्वय जनकत्व में होता है ( व्युत्पत्तिवाद, पृ० २५२-५३ ) । पंचम्यर्थ के रूप में विभागजनकत्व को भी अंगीकार करते हुए गदाधर उक्त वाक्य का शाब्दबोध कराते हैं- 'वृक्षनिष्ठभेदप्रतियोगितावच्छेदक-तन्निष्ठ-विभागजनक-पतनाश्रयः पर्णम्' (वहीं)। इस प्रकार अवधि की सत्ता मानते हुए भी नैयायिकों में विभाग तथा आश्रय को अपादान-पंचमी का अर्थ मानने का पर्याप्त अभिनिवेश है।
दूसरी ओर कौण्डभट्ट भी विभाग और आश्रय को पंचम्यर्थ मानते हैं । दोनों प्रतिपक्षियों की समान स्थिति होने से इनके खण्डन में नागेश को सुविधा है। विभाग को पंचम्यर्थ मानने में साधारण अनुभव से ही विरोध होता है। हमें 'वृक्षापादानक' बोध होता है, 'वृक्षविभागक' नहीं। दूसरी आपत्ति यह है कि 'वृक्षाद् विभजते' में विभाग के बोध की आवृत्ति होगी-पंचम्यर्थ तथा धात्वर्थ दोनों ही विभाग हैं । इस प्रकार पुनरुक्ति-दोष होगा । जब केवल अपादान को पंचम्यर्थ मानकर सभी कार्यों को सुव्यवस्थित किया जा सकता है तब विभाग और आश्रय दोनों को यह कार्यभार समर्पित करना अर्धजरतीयन्याय से निरर्थक है। इसके अतिरिक्त यदि नैयायिकसम्मत विभाग को पंचम्यर्थ मानें तो प्रकृत्यर्थ और विभक्त्यर्थ भिन्नाश्रय हो जायेंगे तथा बड़े परिश्रम से इनके बीच सिद्ध किया गया नैयायिकों का ही अभेदान्वय अग्राह्य हो जायगा । यही कारण है कि विभाग और आश्रय, विभाग और जनक इत्यादि के रूप में न्याय में स्वीकृत पंचम्यर्थ असंगत है।
'वृक्षात्पर्ण पतति' में अभेदान्वय की प्रक्रिया दिखलायी जा सकती है। यहां पत्धार का अर्थ है-विभाग से उत्पन्न होनेवाला संयोग । पूर्वदेश से विभाग होकर उससे उत्तरदेश-संयोग उत्पन्न होता है । पंचम्यर्थ विभाग का विशेषण है तथा प्रकृत्यर्थ प्रत्ययार्य का विशेषण है । इस प्रकार 'वृक्षरूपापादानक-विभाग' ऐसा बोध होता है । पूरे वाक्य का वैयाकरण-मत से शाब्दबोध होगा-'अपादानवृक्षीय-पर्णकर्तृकं पतनम्' (ल० म०)। __नागेश इसी प्रकार अपादान के विभिन्न उदाहरणों में धात्वर्थ का प्रदर्शन करते हैं-कहीं संकेतमात्र और कहीं पूर्ण रूप से शाब्दबोध देकर । उदाहरणार्थ --- 'वृक्षाद् भूमि पर्णं पतति' में भी पत्-धातु का अर्थ है-विभाग से उत्पन्न होनेवाला संयोगानुकूल व्यापार । किन्तु यहाँ विभाग फलता का भी अवच्छेदक ( निर्णायक ) है अर्थात विभाग से भूमि को फल भी प्राप्त हो रहा है कि पर्ण के साथ उसका संयोग हो रहा है । हम देख चुके हैं कि फलतावच्छेदक सम्बन्ध से विभागाश्रय बनने वाला कारक कर्म है।
१. 'तस्मादुक्तावधित्वान्तर्गतव्यापारांशस्य लाभादाश्रयो विभागश्चार्थ इत्याद्यपोयम्'।
-बै० भू०, पृ० १११