Book Title: Sanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Author(s): Umashankar Sharma
Publisher: Chaukhamba Surbharti Prakashan

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Page 286
________________ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन कभी-कभी परस्पर अवधिभाव की विवक्षा नहीं होती और एक शब्द का ग्रहण करके दोनों में विद्यमान क्रियाओं की संयुक्त रूप से विवक्षा होती है; जैसे – 'पर्वतात् मेषावपसर्पत:' ( पर्वत से दोनों मेष हट रहे हैं ) अथवा 'परस्परस्मात् मेषावपसर्पत: ' ( दोनों मेष एक-दूसरे से हट रहे हैं ) । ऐसी स्थिति के विषय में भर्तृहरि कहते हैं २६६ 'अभेदेन क्रियैका तु द्विसाध्या चेद्विवक्षिता । मेषावपाये कर्तारौ यद्यन्यो विद्यतेऽवधिः ॥ - वा० प० ३।७।१४२ दोकर्ताओं द्वारा सम्पाद्य क्रिया ( मेषावसर्पतः ) यदि एकात्मक रूप में प्रतीत करायी जा रही हो तो दोनों मेषों में क्रियावेश के कारण कर्तृत्व सिद्ध होता है । यद्यपि ऐसी स्थिति में अपाय हो रहा है तथापि किसी एक को भी अवधि नहीं कहा जा सकता । इसीलिए इनमें अपादान कारक भी नहीं है । ध्रुव के रूप में पर्वतादि जब अवधि हैं तब अपाय के कर्ता मेष ही रहते हैं । पर्वत या परस्पर को ध्रुवत्व के आधार पर अपादानसंज्ञा हुई है ( द्रष्टव्य - उक्त कारिका पर हेलाराज ) । दीक्षित तथा कौण्डभट्ट 'परस्परस्मान्मेषावपसर्पतः' में प्रत्येक को ध्रुव तथा कर्ता मानते हैं कि एक मेष में विद्यमान गति को लेकर दूसरे मेष को अपादानत्व हुआ है । प्रस्तुत वाक्य को 'अपसर्पतो मेषादपसर्पति मेष:' के तुल्य योगक्षेम समझकर टालने की प्रवृत्ति इन दोनों में है । नागेशभट्ट ने इसीलिए अपनी लघुमञ्जूषा में भूषणकार के मत का अनुवाद करके प्रबल खण्डन किया है । किन्तु इसे पूरे परिप्रेक्ष्य में ही देखना ठीक होगा । नागेश द्वारा अपादानत्व-निर्वचन लघुमञ्जूषा में अपादानत्व-शक्ति का निर्वचन इस प्रकार है - 'प्रकृतधातूपात्तविभागजनक - व्यापारानाश्रयत्वे सति प्रकृतधात्वर्थविभागाश्रयो यस्तद्वृत्तिः ' ( पृ० १२८४-५ ) । जिस धातु का वाक्य में प्रयोग होता है वह प्रकृत धातु है; जैसे – पत्, आ + गम् अप + सृ इत्यादि । इनमें विभाग का अर्थ समाविष्ट है । अपादान कारक इस प्रकार के विभाग को उत्पन्न करनेवाले व्यापार का आश्रय ( आधार ) नहीं होता है । 'पर्णं पतति', 'रामः आगच्छति' इत्यादि वाक्यों में पर्ण, राम इत्यादि विभागजनक व्यापार के आश्रय हैं, किन्तु अपादान ऐसे नहीं होते इसलिए यह विशेषणांश कर्तृकारक में अतिव्याप्तिवारण के लिए लगाया गया है । अपादान का मुख्य लक्षण तो विशेष्यांश में प्रकट हुआ है कि प्रकृत धातु के अर्थ रूप में जो विभाग हो रहा हो उसका आश्रय अपादान है ( प्रकृत धात्वर्थविभागाश्रय ) । किन्तु विभाग के आश्रय ध्रुवत्वं तथात्रापि विभागस्यैक्येऽपि क्रियाभेदादेकनिष्ठक्रियामादायापरस्य ध्रुवत्वम्' । - वै० भू०, पृ० ११० १. ‘तथा परस्परस्मान्मेषावपसरत इत्यत्र सृधातुना गतिद्वयस्याप्युपादानात् एकमेषनिष्ठां गतिं प्रत्यपरस्यापादानत्वं सिध्यति' । - श० कौ० २, पृ० ११५

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