________________
मपावान-कारक
२६५
की सिद्धि में वैशेषिकों का स्वतन्त्र अभिनिवेश है। यह भी दो प्रकार का है-- ( क ) कारणमात्र से उत्पन्न विभाग, यथा-दो कपालों के विभाग से उत्पन्न कपाल तथा आकाश ( पूर्वदेश ) का विभाग । ( ख ) कारण तथा अकारण दोनों के विभाग से उत्पन्न कार्य तथा अकार्य का विभाग, यथा--हस्त और पुस्तक के विभाग से उत्पन्न शरीर और पुस्तक का विभाग । यहाँ शरीर का कारण हस्त ( अवयव ) तथा अकारण पुस्तक है। इन दोनों के विभाग से हस्त के कार्य ( शरीर ) तथा अकार्य ( पुस्तक ) का विभाग उत्पन्न हुआ है ।
अन्यतरकर्मज तथा उभयकर्मज विभागों में अपादान की स्थिति
वैशेषिकों के इस विभाग-विवेचन से परवर्ती वैयाकरणों की व्याख्या अत्यधिक प्रभावित हई है। पतञ्जलि अन्यतरकर्मज विभागमात्र के उदाहरण से सन्तुष्ट हैं, किन्तु भर्तृहरि उभयकर्मज विभाग की भी व्याख्या करते हैं, जिस विषय में उनकी ये दो प्रसिद्ध कारिकाएँ हैं
'उभावप्यघ्रवौ मेषो यद्यप्युभयकर्मजे । विभागे प्रविभक्ते तु क्रिये तत्र विवक्षिते ॥ मेषान्तरक्रियापेक्षमवधित्वं पृथक् पृथक् । मेषयोः। स्वक्रियापेक्षं कर्तृत्वं च पृथक् पृथक् ॥
___---वा०प० ३।७।१४०-४१ 'स्थाणोः श्येनोऽपसर्पति' ( सूखे वृक्ष से बाज अलग हो रहा है )--यहां तो अन्यतरकर्मज विभाग है । गमन-रूप कर्म केवल बाज में है, स्थाणु में नहीं। इसलिए अपाय का अनावेश होने से स्थाणु को ध्रुव कहेंगे । किन्तु 'अपसर्पतो मेषादपसर्पति मेषः' ( हटते हुए मेष से दूसरा मेष हटता है ) इसमें उभयकर्मज विभाग है, दोनों मेष अलग हो रहे हैं । अपाय से सीधे सम्बन्ध होने के कारण दोनों मेष यद्यपि अध्रुव हैं तथापि एक के अपाय से दूसरे का अनावेश है । अतः कर्तृभेद से अपायबोधक क्रियाएँ भी भिन्नरूप दी गयी हैं । एक मेष को दूसरे मेष की क्रिया की अपेक्षा से अवधि कहा जा सकता है, क्योंकि उसे मेषान्तर के साथ लगी हुई अपाय-क्रिया आविष्ट नहीं करती । तदनुसार दोनों मेष बारी-बारी से अपादान होंगे । दूसरी ओर यदि दोनों मेषों का विचार अपनी क्रिया को दृष्टि में रखकर करें तो उनका कर्तत्व भी निविवाद है। यह भी एक-एक करके सम्भव है । अभिप्राय यह है कि प्रत्येक मेष कर्ता और अपादान दोनों है । कोण्डभट्ट भी इसका विश्लेषण इसी रूप में करते हैं। १. 'द्वित्वे च पाकजोत्पत्तौ विभागे च विभागजे । यस्य न स्खलिता बुद्धिस्तं वै वैशेषिकं विदुः' ।
-सर्वदर्शनसं०, पृ० ४१९ ( औलूक्य० ) २. द्रष्टव्य-भाषापरिच्छेद, १२०-२१ । ३. 'यथा निश्चलमेषादपसरद् द्वितीयमेषस्थलेऽपसरद्वितीयमेषक्रियामादायापरस्य