Book Title: Sanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Author(s): Umashankar Sharma
Publisher: Chaukhamba Surbharti Prakashan

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Page 280
________________ २६० - संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्वानुशीलन होने से यहाँ आपाततः अपाय की प्रतीति होती है, किन्तु वस्तुतः अपाय नहीं है । वृक्ष और पर्ण पृथक् नहीं हो रहे हैं और न कुड्य-पिण्ड का वियोग ही विवक्षित है। ध्रुव वस्तु की सत्ता के बिना केवल गति को अपाय नहीं कह सकते । लौकिक दृष्टि से अपाय रहने पर भी ध्रुव अविवक्षित है, अतः यहाँ वृक्ष और कुड्य को अपादानसंज्ञा नहीं होगी। ध्रुव को शास्त्रीयता : अवधि को अनिवार्यता ध्रुव का अर्थ यदि स्थिर या अचल लेते हैं तो उपर्युक्त- 'वृक्षात्पर्ण पतति' इत्यादि उदाहरणों में तो अचलता के कारण अपादान-संज्ञा वृक्षादि में हो सकती है, किन्तु गतिशील पदार्थों में अपादान कैसे होगा? रथात्प्रवीतात्पतितः ( तेज दौड़ते हुए रथ से गिर गया ), अश्वात् त्रस्तात्प्रतितः ( डरकर भाग रहे घोड़े से गिर पड़ा ), सादि गच्छतो हीनः ( जाते हुए अपने साथियों के समूह से बिछुड़ गया ) इत्यादि ऐसे उदाहरण हैं जहाँ गतिशील रथ, अश्व, सार्थ इत्यादि निश्चित रूप से अपादान हैं। इनकी क्या व्यवस्था होगी ? कात्यायन कहते हैं कि यहाँ अपादान इसलिए माना जा सकता है कि अधुवता अविवक्षित है। अर्थात् वक्ता इन पदार्थों को अध्रुव होने पर भी ध्रुव मानना चाहता है । परन्तु यह कैसे हो सकता है कि स्पष्टतः परिस्पन्दित होनेवाले पदार्थों को हम ध्रुव मान ले ? पतंजलि कहते हैं कि अश्व में जो अश्वत्व ( जाति, प्रवृत्ति निमित्त अर्थ ) तथा आशुगामित्व ( व्युत्पत्तिनिमित्त अर्थ ) है, वही ध्रुव है-इसे वक्ता कहना चाहता है। निश्चय ही वे एकरूपता को ध्रुव मानते हैं, क्योंकि अश्व के उपर्युक्त धर्म सदा एकरूप हैं, वह चाहे शान्त हो या त्रस्त । कैयट कहते हैं कि ऐसे उदाहरणों में पहले कारक ( अश्व ) का क्रिया ( पतितः ) से अन्वय होता है, जो श्रुतिगम्य है। अब विशेषण के साथ वाक्यगत संबन्ध होता है ( त्रस्तः अश्वः ) । इस प्रकार यदि 'अश्वात्पतितः' इस संबन्ध के प्रदर्शन में अश्व में अध्रुवता नहीं है तो बाद में त्रस्त के साथ सम्बन्ध होने पर भी अश्व की अन्तरंग संज्ञा निवृत्त नहीं होगी, जिससे उसकी अध्रुवता भी पूर्ववत् बनी रहेगी। अब रही बात 'त्रस्त' शब्द के अपादानत्व की, यह कहा जा सकता है कि उसमें अपादान नहीं रहने पर भी विशेष्य के अनुरोध से ही विभक्ति लगायी गयी है, अनियम से नहीं' । 'त्रस्त' में विभक्ति-साधन का अन्य उपार भी कयट दिखलाते हैं जो नागेश के अनुसार भाष्य का स्वरस है। वह यह है कि 'त्रस्त' को भी अपादान माना जाय, क्योंकि त्रास की अपेक्षा से उसमें भले ही अध्रुवत्व हो १. 'न वाऽध्रौव्यस्याविवक्षितत्वात्' । ( १।४।२४ पर वार्तिक ) २. 'ध्रुवमेकरूपमुच्यते' -कैयट २, पृ० २४९ ३. 'विशेषणस्यासत्यप्यपादानत्वे सामयिकी विभक्तिः । सा च विशेष्यानुरोधेन प्रवर्तते, न त्वनियमेन' ॥ -वहीं

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