Book Title: Sanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Author(s): Umashankar Sharma
Publisher: Chaukhamba Surbharti Prakashan

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Page 282
________________ २६२ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्वानुशीलन है, प्रत्युत अश्व उस क्रिया के प्रति उदासीन है। पतन-क्रिया से अनावेश ( साक्षात्सम्बन्ध का अभाव ) रहने के कारण अश्व का ध्रुवत्व निर्विवाद है'। नव्य-व्याकरण ग्रन्थों में भर्तृहरि के नाम से इस कारिका का बहुधा उद्धरण दिया गया है 'अपाये यदुवासीनं चलं वा यदि वाचलम् । प्रवमेवातदावेशात तदपादानमुच्यते ॥ इसका उदाहरण दिखलाने के लिए एक पृथक् श्लोक दिया गया है 'पततो ध्रुव एवाश्वो यस्मादश्वात्पतत्यसो । तस्याप्यश्वस्य पतने कुड्यादि ध्रुवमिष्यते ॥ इन श्लोकों का भाव हेलाराज ने ( वा०प० ३।७।१३८-३९ की व्याख्या ) तो दिया ही है भर्तृहरि भी इससे सहमत हैं। अभिप्राय यह है कि उपर्युक्त क्रम से विश्लेष क्रिया के प्रति जो उदासीन या निरपेक्ष हो, वह चाहे चल हो या अचल; वही ध्रुव है, क्योंकि वह विश्लेष-बोधक क्रिया से साक्षात्सम्बद्ध नहीं है। इसलिए ध्रुव के दो भेद हैं—अचल ( वृक्ष ) तथा चल । दूसरे श्लोक में चल ध्रुव की ही सोदाहरण व्याख्या है । 'कुड्यात्पततोऽश्वात्पतति' ( दीवार से गिर रहे घोड़े से वह गिरता है )- इस उदाहरण में विश्लेषण-हेतुक दो क्रियाएँ हैं । 'पतति' से बोध्य द्वितीय पतन-क्रिया का कर्ता कोई व्यक्ति है जो अश्व पर आरूढ है। जिस अश्व से वह व्यक्ति गिरता है वह इस पतन-क्रिया के प्रति उदासीन होने के कारण ध्रव है। दूसरे शब्दों में व्यक्ति के पतन के प्रति अश्व ध्रव है। किन्तु वही अश्व 'पतत:' से बोध्य प्रथम पतन-क्रिया के प्रति कर्ता है, ध्रुव नहीं । इस क्रिया के प्रति निरपेक्ष होने से कुड्य अवश्य ही ध्रुव है। इस प्रकार 'ध्रुव' का निर्गलित अर्थ हुआ-विश्लेष-हेतुक ( पतन, सरण, हान, भ्रंश इत्यादि ) क्रिया का प्रयोग होने पर जो पदार्थ उस क्रिया के प्रति उदासीन हो, वही ध्रुव है। भर्तृहरि ने ध्रुव तथा अध्रुव का भेद दिखलाया है 'सरणे देवदत्तस्य प्रौव्यं पाते तु वाजिनः । आविष्टं यदपायेन तस्याप्रौव्यं प्रचक्षते ॥ -वा०प० ३७।१३९ अश्व में समवेत सरण-क्रिया ( तेज दौड़ता ) होने पर जिस प्रकार देवदत्त में ध्रुवत्व है, क्योंकि उस क्रिया से वह अप्रभावित रहता है, ठीक उसी प्रकार देवदत्त में समवेत पतनक्रिया होने पर उससे अप्रभावित ( अनाविष्ट ) होने के कारण अश्व में भी ध्रुवत्व है । 'अपाय का अनावेश' ध्रुव होने का हेतु है। दूसरी ओर जो पदार्थ अपायाविष्ट है उसे अध्रुव कहते हैं । यहाँ यह स्मरणीय है कि अश्व के भागने पर देवदत्त को लौकिक दृष्टि से ध्रुव भले ही कह लें, किन्तु पारिभाषिक ध्रुवत्व के अभाव १. 'ध्रुवं कूटस्थं निष्क्रियमिति द्रव्यस्वभावः । 'ध्रुवताश्वस्य तत्रास्त्येव' । -हेलाराज २, पृ० ३४०

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