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यहाँ भी शुभ और अशुभ इन दो कर्मों का धात्वर्थ ( राध्यति, ईक्षते ) के द्वारा उपसंग्रह हो रहा है, अतः ये दोनों क्रियाएँ अकर्मक हैं ( श० कौ० २, पृ० १२५ ) । राध्यति = शुभाशुभं पर्यालोचयति । यही अर्थ 'ईक्षते' का भी है । विप्रश्न का अर्थ है विविध प्रश्न । जिसके शुभाशुभ की बात पूछी जाती है, उसीका विप्रश्न भी होता है । अतः सूत्रार्थ हुआ कि राध और ईक्ष् धातुओं के प्रयोग में जिसके सम्बन्ध में अनेक प्रश्न पूछे जाते हैं वह कारक भी सम्प्रदान होता है । जैसे – 'देवदत्ताय राध्यति ईक्षते वा' ( देवदत्त के विषय में पूछने पर ज्योतिषी शुभाशुभ फल बतलाते हैं ) ।
हेलाराज यहाँ हेतुसंज्ञा की प्राप्ति होने पर सम्प्रदान मानते हैं, क्योंकि उनके अनुसार देव ( भविष्यत्फल ) का पर्यालोचन करने के लिए गणक को देवदत्त ही प्रेरित करता है अर्थात् देवदत्त प्रयोजक या हेतु है । किन्तु ऐसा कहना सर्वथा अभ्रान्त नहीं है, क्योंकि देवदत्त के विषय में ज्योतिपी से पूछनेवाला व्यक्ति देवदत्त का कोई सम्बन्धी भी तो हो सकता है जो दैव-पर्यालोचन की प्रेरणा दे । ऐसी दशा में देवदत्त को हेतुसंज्ञा कहाँ प्राप्त है ? अतः नव्य- वैयाकरणों का मत है कि देवदत्त के सम्बन्ध में प्रश्न पूछे जाने से षष्ठी की प्राप्ति अवश्य थी जिसे रोककर सम्प्रदान- संज्ञा विहित हुई है ( श० कौ० ) । नागेश के अनुसार धात्वर्थ 'प्रश्नविषयक शुभाशुभ का पर्यालोचन' है । उस प्रश्न के विषय से सम्बद्ध कृष्ण को सम्प्रदान होकर शाब्दबोध होगा - 'कृष्णसम्प्रदानकम् (अर्थात् ) कृष्णसम्बन्धिप्रश्न विषयशुभाशुभपर्यालोचनम् ' ( ल० म०, पृ० १२७५ ) ।
( ७ ) 'प्रत्याद्भ्यां श्रुवः पूर्वस्य कर्ता' ( १|४|४० ) – प्रति और आङ् – इन दो उपसर्गों के बाद श्रु-धातु का प्रयोग हो तो पूर्व अर्थात् प्रवर्तन-रूप व्यापार का कर्ता सम्प्रदान होता है; जैसे – 'देवदत्ताय गां प्रतिशृणोति, आशृणोति' ( देवदत्त के द्वारा गौ देने के लिए प्रवृत्त किये जाने पर कोई उसे देने की प्रतिज्ञा करता है ) । यहाँ वास्तव में दो वाक्य हैं । देवदत्त गोदान के लिए प्रेरणा देता है, तब दूसरा व्यक्ति उसे गोदान करने का वचन देता है । पूर्व वाक्य में प्रवर्तन-व्यापार है, जिसके कर्ता देवदत्त की सम्प्रदान- संज्ञा हुई । हेलाराज, दीक्षित तथा नागेश इस विषय में सहमत तथा समर्थनीय हैं कि हेतुसंज्ञा प्राप्त होने पर सम्प्रदान-विधान हुआ है । किन्तु हरदत्त के अनुसार विवक्षा से 'देवदत्तो गां प्रतिश्रावयति' प्रयोग हो सकता है ( जहाँ प्रवर्तनाव्यापार के कर्ता को सम्प्रदानत्व-विवक्षा नहीं हुई है ) । दीक्षित इसका दृढ़ प्रतिवाद करते हैं कि ऐसी दशा में तो 'देवदत्तो रोचयति मोदकम् ' का प्रयोग भी अनिवार्य हो जायगा । किन्तु ऐसे प्रयोगों का हेलाराज ने तथा स्वयं हरदत्त ने विरोध किया है । वहाँ हेतुत्व का बाध करने के फलस्वरूप यदि णिच् नहीं होता तो यहाँ भी तुल्य अनुशासन होना चाहिए, विषमता ठीक नहीं । निष्कर्षतः हेतुसंज्ञा के स्थान में इस सूत्र से सम्प्रदान होता है, विवक्षा भी प्रतिवर्तन की अनुमति नहीं देती ।
प्रवर्तन से उत्पन्न अभ्युपगम ( स्वीकृति ) धात्वर्थ है और स्वार्थ के लिए किये गये प्रवर्तन का आश्रय सम्प्रदान है ( ल० म०, पृ० १२७५ ) ।
सम्प्रदान-कारक