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सम्प्रदान-कारक
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कारक होगा- 'पुष्पाणि स्पृहयति' । सम्प्रदान की स्थिति में ईप्सित पदार्थ धात्वर्थ के व्यापार से उत्पन्न फल का आश्रय होता है। यहां धात्वर्थ में फल का ग्रहण नहीं होता है। फलस्वरूप बोध होता है--पुष्पसम्प्रदानिका इच्छा । नागेश इस प्रकार हेलाराज की यह बात नहीं मानते कि कर्मसंज्ञा की प्राप्ति होने पर सम्प्रदान-विधान होता है। दोनों के विषय-क्षेत्र ( jurisdiction ) अत्यन्त भिन्न हैं । हाँ, शेष षष्ठी के अपवाद में इसे रख सकते हैं । किन्तु यह भी ज्ञातव्य है कि शेषविवक्षा होने पर षष्ठी का कोई वारण नहीं कर सकता।
नागेश के कथन का सारांश यह है कि-(१) क्रियाजनकत्व होने पर सम्प्रदान, (२) क्रियासम्बन्धित्व-मात्र की विवक्षा होने पर षष्ठी तथा ( ३ ) क्रिया के फललाभ की विवक्षा होने पर कर्म होता है ।
(५) 'क्रुधगुहेासूयार्थानां यं प्रति कोपः' (१।४।३७)-क्रोध ( अमर्ष, रोष ), द्रोह ( अपकार या अहित की इच्छा ), ईर्ष्या ( परोत्कर्ष को न सहना ) तथा असूया ( गुणों में दोष ढूंढ़ना )--इन अर्थों का प्रयोग होने पर जिसके प्रति कोप हो वह सम्प्रदान होता है। जैसे-हरये क्रुध्यति, द्रुह्यति, ईर्ण्यति, असूयति । सम्प्रदान के सूत्रों में प्रथम सूत्र के अतिरिक्त एकमात्र इसी सूत्र की व्याख्या पतंजलि ने की है । वे शंका करते हैं कि क्रोधादि एकार्थक हैं या नानार्थक ? यदि सबों का एक ही अर्थ है तो इनका पृथक्-पृथक् निर्देश क्यों किया गया है ? और यदि ये नानार्थक हैं तो 'यं प्रति कोपः' इस सामान्य विशेषण से सम्बद्ध कैसे होंगे ? क्या सबों में कोप का भाव रहता है ?
इसका समाधान करते हुए वे कहते हैं कि कोप का वाच्यार्थ सबों में सामान्यतया रहता ही है, सभी वृत्तियाँ कोपमूलक ही हैं। कैयट इसे सम्प्रदान-विवक्षा के स्थानों के लिए प्रयुक्त मानते हैं -ऐसी बात नहीं है कि द्रोहमात्र या ईर्ष्यामात्र ही कोपपूर्वक होता है । 'यं प्रति कोपः' विशेषण की सार्थकता व्यभिचार ( विरोधी उदाहरण ) के मिलने में ही है। कहीं-कहीं कोपशन्य द्रोहादि मिलते हैं; यथा-भार्यामीय॑ति । यहाँ भार्या से इसलिए ईर्ष्या है कि दूसरा कोई उसे न देखे । कोप का भाव नहीं है । बात इतनी ही है कि दूसरे के द्वारा देखे जाने पर भार्या को सह नहीं पाता । उसमें असहिष्णुता है, अतः सम्प्रदान नहीं हुआ। ___ लघुमंजूषा में प्रसंगतः क्रोधादि का विश्लेषण हुआ है । वधादि के अनुकूल व्यापार को उत्पन्न करनेवाली एक विशेष प्रकार की चित्तवृत्ति, जो क्रोध के रूप में है, वही धात्वर्थ ( क्रुध् का अर्थ ) है । दुःख उत्पन्न करनेवाली क्रिया के रूप में अपकारजनक चित्तवृत्ति को द्रोह कहते हैं । ये दोनों धातु अकर्मक हैं, क्योंकि धात्वर्थ से कर्म का उपसंग्रह होता है । जिस प्रकार 'प्राणान् धारयति' का उपसंग्रह 'जीवति' क्रिया में हो
१. 'शेषषष्ठ्यपवाद एतत्सम्प्रदानविभक्तिः'। -ल० म०, पृ० १२७३ २. ल० श० शे०, पृ० ४४३ ।