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सम्प्रदान-कारक
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ऋण उत्तम हो अर्थात् जिसका धन हो । ऋण का प्रयोक्ता, धन का स्वामी सम्प्रदान कहलाता है जब धारय ति-क्रिया का प्रयोग हो । जैसे- 'देवदत्ताय शतं धारयति' ( वह देवदत्त के सौ रुपये लिये हुआ है ) । ऋण ग्रहण करने वाले को अधमणं कहते हैं। यहाँ हेलाराज कहते हैं कि उपर्युक्त हेतु, कर्म तथा शेप इन तीनों के स्थान में सम्प्रदान के विधान का जो सामान्य नियम है वह सर्वत्र लागू नहीं होता । कहीं-कहीं एकाध के ही स्थान में सम्प्रदान होता है । जैसे इसी स्थल में केवल शेष षष्ठी प्राप्त होने पर सम्प्रदान-संज्ञा के लिए यह सूत्र है । तात्पर्य यह है कि स्वरूप में स्थित सौ रुपयों को देवदत्त स्थापित करता है, अधमर्ण उन्हें धारण करता है । उत्तमर्ण देवदत्त दान-क्रिया के द्वारा धारण का निमित्त है, क्योंकि वही दान करता है। किन्तु 'ददाति' क्रिया यहाँ श्रयमाण नहीं है । अतः अश्रूयमाण 'ददाति' क्रिया के विषय में कारकशेष होने से यहाँ षष्ठी की प्राप्ति थी - इसे रोककर शास्त्र द्वारा सम्प्रदान-विधान हुआ है ।
धृङ्-धातु का अर्थ है-अवस्थान । इसमें प्रेरणार्थक णिच् प्रत्यय लगाने पर 'धारयति' बनता है, जिसमें अवस्थान के अनुकूल व्यापार का अर्थ निहित है। इस अर्थ की अवस्थिति का जो आश्रय ( ऋण लेने वाला ) हो उसका सम्बन्धी ( ऋणदाता ) सम्प्रदान है । 'भक्ताय धारयति मोक्षं हरिः' यह उदाहरण नव्य ग्रन्थों में है । उक्त प्रक्रिया से इसका शाब्दबोध होगा--'हरिकर्तृको भक्तसम्प्रदानको मोक्षकर्मकावस्थित्यनुकलो व्यापारः' । यहाँ मोक्ष स्वरूपतः अवस्थित है, उसमें परिवर्तन नहीं होता । धारण क्रिया का यही अर्थ है कि गृहीत ऋण को उसी रूप में देने के लिए अधमर्ण व्यक्ति रखा हुआ है।
यहाँ प्रश्न होता है कि भोक्ष को ऋण कहा जा सकता है या नहीं? ऋण के विषय में दो मान्यताएँ हैं । पहली मान्यता यह है कि जब सजातीय द्रव्यान्तर का दान स्वीकार्य हो तब दूसरे के द्वारा दिये गये उसके द्रव्य का ग्रहण करना ऋण है ( 'ऋणं नाम सजातीयद्रव्यान्तरदानमङ्गीकृत्य परदत्त-परकीयद्रव्यादानम्'--- ल० म०, पृ० १२७२ ) । यह सम्भव नहीं कि जिस वस्तु का ऋण लिया गया है उसे उसी रूप में लौटा दिया जाय, अन्यथा ऋण का प्रयोजन ( उपयोग ) ही नहीं होगा। किन्तु द्रव्य की राशि, गुण या परिमाण में परिवर्तन करके दूसरा द्रव्य नहीं दिया जा सकता । देना तो द्रव्यान्तर ही है, किन्तु वह सजातीय ही हो । यह नहीं कि लिया तो अच्छा अन्न और लौटाने लगे निकृष्ट अन्न । चौर्य का निरसन करने के लिए 'परदत्त' शब्द का प्रयोग है । इसके अनुसार तो हरि की अधमर्णता कभी सम्भव नहीं, क्योंकि मोक्ष के सजातीय द्रव्य का आदान हरि जब भक्त से किये हुए रहेंगे तभी वे उसके अधमर्ण हो सकते हैं। १. 'यथासम्भवं हि हेत्वादित्रयं प्राप्तमुच्यते, न तु प्रत्येकम्' ।
-हेलाराज, पृ० ३३४ २. 'विशेषविवक्षाया अभावे क्रियानिमित्तत्वमात्राश्रयणेन शेषत्वं प्राप्तमिति बोध्यम्।
-ल० म०, पृ० १२७२ १८.