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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
देना । यहाँ 'आत्मानम्' ( अपने को ) का अध्याहार होता है। सपत्नी के भय से अपने को उस रूप में स्थापित करना अर्थ है। शाब्दबोध इस प्रकार होगा-'गोपीकर्तृका कृष्णसम्प्रदानिका ( अर्थात् ) कृष्णवृत्तिबोधविषया आत्मकर्मकतथावस्थानानुकूला क्रिया' ( गोपी के द्वारा कृष्ण के लिए अर्थात् कृष्ण के बोध का विषय अपने को बनाते हुए उस रूप में अवस्थित होने के अनुकूल क्रिया-ल० म०, पृ० १२७० )।
(ग ) कृष्णाय तिष्ठते (कृष्ण को बोध कराने के लिए स्थिर हो जाती है)--यहाँ गतिनिवृत्ति ( ठहर जाना ) के द्वारा अपने अभिप्राय को बोध कराने का अर्थ है । अभिप्राय यही है कि मैं इस प्रकार की हूँ । इसका बोध इस प्रकार होगा- 'गोपीकर्तृका कृष्णसम्प्रदानिका बोधानुकूला स्थितिः' । स्था-धातु का अर्थ जहाँ अभिप्रायकथन ( प्रकाशन ) हो वहाँ यह आत्मनेपद होता है-'प्रकाशनस्थेयाख्ययोश्च' (पा० १।३।२३ )।
(घ ) कृष्णाय शपते ( कृष्ण को बोध कराने के लिए गोपी शपथ लेती है, उलाहना देती है )-यहाँ उपालम्भ द्वारा कृष्ण को बोध कराना अभीष्ट है । पाणिनिसूत्र १।३।२१ पर वार्तिक है --शप उपलम्भने । उपलम्भन ( प्रकाशन-कैयट, शपथकाशिका ) के अर्थ में शप्-धातु आत्मनेपद होता है । इस धातु के अनेक अर्थ हैं -- (१) आक्रोश यथा-देवदत्तं शपति ( निन्दति ); (२) शारीरिक या मानस स्पर्श यथा-विरैः शपे, क्षात्रधर्मेण शपे; ( ३.) प्रकाशन यथा-देवदत्ताय शपते । नागेश काशिका के इस मत पर आक्षेप करते हैं कि उपलम्भन का अर्थ शपथ है। जयादित्य ने कहा है कि वाणी से शरीर का स्पर्श करना ( शपथ लेना, Swearing ) उपलम्भन है। नागेश उद्योतटीका में इसे प्रकाशन के अर्थ में व्यवस्थित करके भी पुनः लघुमंजूषा में शाब्दबोध देते हुए शपथ-रूप अर्थ ही रख देते हैं- 'तत्सम्प्रदान-बोधानुकूलं शपथकरणम्' (पृ० १२७१ )।
नागेश प्रकारान्तर से भी इसकी व्याख्या करते हैं । जीप्स्यमान पद में ण्यर्थकर्म तथा प्रकृत्यर्थकर्म का भी ग्रहण होता है, इसलिए बोध भी दो प्रकार के होंगे। पहला अर्थ होता है-स्तुति से, ह्नति से, स्थिति से और शपथ से कृष्ण को अपने अनुराग का बोध कराती है। दूसरे प्रकार में स्तुत्यादि से कृष्ण को अपने सखीजन का ज्ञान कराती है। अनुराग-रूप ज्ञायमान पदार्थ यहाँ पर ण्यर्थकर्म है। गोपी का अनुराग कृष्ण के द्वारा ज्ञात हो जाय इसीलिए वह स्तुत्यादि करती है । स्वसखीजन के रूप में ज्ञीप्स्यमान पदार्थ प्रकृत्यर्थकर्म है, क्योंकि गोपी का उद्देश्य कृष्ण तक अपने अनुराग को पहुँचाना ही नहीं, अपनी सखियों का बोध कराना भी अभिप्रेत है । सन् प्रत्यय के प्रयोग के कारण ऐसा अर्थ होता है । इस प्रकार नागेश का आशय है कि दोनों प्रकार के अर्थ निकलते हैं, यद्यपि वाक्य एक है।
( ३ ) 'धारेरुत्तमर्णः' ( १।४।३५ )-उत्तमर्ण का अर्थ है ऋणदाता, जिसका १. प्रदीपोद्योत, पृ. १६२ । २. ल० श० शे०, पृ० ४४२ तथा ल० म०, पृ० १२७०-७१ ।