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सम्प्रदान-कारक
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शब्दों में 'प्रत्यक्षवृत्ति' है । शास्त्रीय सम्प्रदान कृत्रिमता की पराकाष्ठा पर है, परोक्षवृत्ति' है । शास्त्रकार की घोषणा के अभाव में उसे कोई भी सम्प्रदान नहीं कह सकता, क्योंकि दान से उसका कोई सम्बन्ध नहीं।
(२.) 'श्लाघहस्थाशपां जीप्स्यमानः' ( १।४।३४ )--श्लाघ् (कत्थन, स्तुति), हङ् ( अपनयन, छिपाना ), स्था ( गतिनिवृत्ति ) तथा शप् ( उपालम्भ )-इन धातुओं का प्रयोग होने पर जिस व्यक्ति-विशेष को बोध कराना अभिप्रेत हो उसे भी सम्प्रदान कहते हैं । जैसे-( क ) 'गोपी स्मरात् कृष्णाय श्लाघते' ( गोपी कामपीड़ा से कृष्ण की स्तुति कर रही है ) । यहाँ कृष्ण को यह बोध कराना अभिप्रेत है कि उनके वियोग में उनकी प्रेमिका स्तुति कर रही है। प्राचीन उदाहरणों में 'देवदत्ताय श्लाघते' आता है, जिसकी व्याख्या में हेलाराज कहते हैं कि देवदत्त गुणोत्कर्ष के कारण प्रशंसित हो रहा है और इसी गुणवत्ता के कारण अपनी शक्ति के अनुकूल आचरण भी करता है, अतः उस पर प्रयोजकत्व का आरोपण होता है तथा उसे हेतुसंज्ञा प्राप्त होती हैइसे रोककर यह सूत्र उसे सम्प्रदान में व्यवस्थित करता है। अथवा गुणों के वर्णन से देवदत्त को बोध कराना अभीष्ट है । ज्ञापन-क्रिया के द्वारा प्राप्य होने से उसकी कर्मसंज्ञा भी प्राप्त है, जिसे रोककर सम्प्रदान की व्यवस्था होती है ।
दूसरे प्राचीन आचार्यों का मत है कि देवदत्त के समक्ष अपने को या दूसरे को श्लाघ्य कहता है ( देवदत्तायात्मानं परं वा श्लाघ्यं कथयति )--यह अर्थ है। इसी अर्थ में भट्टि का भी प्रयोग है--'श्लाघमानः परस्त्रीभ्यस्त त्रागाद् राक्षसाधिपः' ( भट्रिकाव्य ८७३ ) इस पक्ष में कारक-शेष होने के कारण षष्ठी की प्राप्ति थी, इसे रोककर सम्प्रदान-संज्ञा का विधान होता है। जीप्स्यमान (ज्ञप्+णि+सन्+कर्मणि यक+शानच् )-पद' के द्वारा णिजर्थ (प्रेरणा ) के प्रधान कर्म का ग्रहण होता है। सन्-प्रत्यय ( इच्छार्थक ) के प्रयोग का प्रयोजन है कि जिस विषय के ज्ञान के अनुकूल व्यापार हो उस प्रकृत्यर्थ-कर्म का भी ग्रहण उस पद से समझना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता तो 'ज्ञाप्यमान' कहकर भी काम चलाया जा सकता था ( लघुमंजूषा, पृ० १२७० ) । पूर्वोक्त उदाहरण का बोध होता है-'गोपीकर्तृका स्मरहेतुका कृष्णसम्प्रदानिका ( अर्थात् ) कृष्णबोधविषया स्तुतिः' । यह प्रकरणादि से समझ लें कि स्तुति अपनी हो रही है या दूसरे की । यदि कृष्ण ही स्तुत्य हों तब तो परत्व के कारण कर्म ही होगा-कृष्णं स्तौति ।
(ख ) कृष्णाय ह्नते ( कृष्ण को बोध कराने के लिए गोपी छिपती है )सपत्नियों के सामने कृष्ण को दिखाकर छिपती हुई गोपी उन्हें अपनी स्थिति बतला देती है अथवा छिपने योग्य स्थान का बोध करा देती है। नागेश के अनुसार ह्न-धातु का अर्थ है-बोध के लिए, दूसरे को दिखायी न पड़ने योग्य स्थान में रख
१. 'ज्ञप मिच्च ( चु० उ० ) इति चुरादिकात्सनि कर्मणि शानचि ज्ञीप्स्यमान इति रूपं बोध्यम् । न तु ज्ञाधातोः । तस्य बोधने मित्त्वाभावात् । तज्ज्ञापयति इत्यादि भाष्यप्रयोगात्' ।
-श० कौ० २, पृ० १२३-४