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सम्प्रदान-कारक
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पथि' | 'पथिन्' शब्द में अधिकरण है, उसके स्थान में सम्प्रदान नहीं होगा । इसके
अतिरिक्त वह प्रीयमाण भी नहीं ।
भवानन्द अपने कारकचक्र में 'नारदाय रोचते कलहः' तथा ' वैश्याय शतं धारयति' इन दोनों प्रयोगों में नारद और वैश्य को सम्प्रदान नहीं मानने तथा सम्बद्ध
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सूत्रों के बल पर सम्बन्धमात्र में यहाँ चतुर्थी स्वीकार करते हैं । चतुर्थी का सम्बन्ध धातु के साथ रुचि के रूप में है और आख्यात के द्वारा विषयता अभिहित है । फलतः 'नारदस्य रुचिविषयः कलहः' यही अर्थ होता है । स्पष्ट है कि भर्तृहरि की शेषत्वविवक्षा वाले विकल्प का इस व्याख्या पर प्रभाव है । चूंकि शेषत्व कारक नहीं है अत: उसके स्थान में सम्प्रदान स्वीकार करने में नैयायिक भवानन्द को आपत्ति हो रही है । गदाधर को इसमें संकोच नहीं । प्रीतिजनकता के रूप में जो रुचि का अर्थ है उसी में विद्यमान प्रीति के भागी नारद को वे दृढ़तापूर्वक सम्प्रदान सिद्ध करते हैं ( व्युत्पत्तिवाद, पृ० २४२ ) । यहाँ आश्रितत्व के रूप में चतुर्थी का अर्थ है - जिसका अन्वय प्रीति में होता । इस प्रकार की प्रीतिक्रिया का आश्रय होने से कलह का कर्तृत्व निर्विवाद है ।
नागेश को 'शेषत्व के स्थान में रुच्यर्थक सम्प्रदान' की बात ठीक नहीं लगती, क्योंकि हेतुसंज्ञा के स्थान में सम्प्रदान-संज्ञा का प्रसंग तो वे हेलाराज का अनुवाद करके चलाते ही हैं" और " कर्मसंज्ञा के स्थान में सम्प्रदान' के पक्ष में भी बोलते हुए न्याय-मत में गौरव - दोष दिखलाकर उसका निरसन करते हैं । पूर्वपक्ष के अनुसार प्रीति के समानार्थ में रुचि अभिहित है, जिससे कर्म के अपवादस्वरूप सम्प्रदान का विधान होता है | नागेश कहते हैं कि सूत्र में जो ' प्रीयमाण' शब्द का प्रयोग हुआ है वहाँ कर्मवाच्य में शानच् लगा है अर्थात् देवदत्तादि सम्प्रदान को कर्मसंज्ञा (हरि प्रीणयति - हरिः प्रीयते - हरिः प्रीयमाणः ) प्राप्त थी ही । यदि कर्मसंज्ञा के अपवाद के रूप में सम्प्रदान होता तो 'हरि प्रीणयति' की संगति कभी होती ही नहीं, क्योंकि उत्सर्ग से अपवाद अधिक प्रबल होता है । दूसरे, यदि रुचि और प्रीति समानार्थ होते तो प्रीधातु के योग में भी सम्प्रदान- संज्ञा होनी चाहिए, किन्तु नहीं होती । निष्कर्षतः प्रीधातु के योग में जो कर्म रहता है वही रुचि अर्थ वाले धातुओं के लिए ( जो प्रीत्यनुकूल अर्थ रखते हैं ) सम्प्रदान है ।
अभिपूर्वक लक्ष् धातु के योग में भी सम्प्रदान नहीं होता - 'हरिः भक्तिमभिलष्यति' । इसका कारण यह है कि 'अभिलष्यति' क्रिया रुचि के अर्थ में नहीं है । इस क्रिया से हमें उस व्यापार का बोध होता है जो विषयता सम्बन्ध से अवच्छिन्न प्रीति के अनुकूल तो है ही, साथ-साथ प्रीति से व्यधिकरण ( भिन्नाधारयुक्त ) भी है ( ल० म०, पृ०
१. 'केचित्तु प्रीतिविषयतामापद्यमानं मोदकं लौल्याद् देवदत्तः प्रयुङ्क्ते, तदानुगुण्यमाचरतीति हेतुत्वे प्राप्त इदम् । एवं च हेतुसंज्ञाभावे णिचोऽभावाद् हेतुगतव्यापाराप्रतीतेः मोदकः स्वक्रियायां कर्ता भवति, न तु देवदत्तः । उपात्तक्रियायां तस्य स्वातन्त्र्याभावादित्याहुः' । – ल० म०, पृ० १२६८