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सम्प्रदान-कारक
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ग्रह से उत्पन्न होता है। किसी वस्तु का जब हम अपनी इच्छा के अनुकूल विनियोग कर सकें तब उसके ऊपर हमारा स्वत्व कहा जाता है। हाँ, इतना अवश्य है कि शास्त्रों में इस विनियोग का निषेध नहीं होना चाहिए। यह स्वत्व क्रय, प्रतिग्रह आदि क्रियाओं का विषय होता है अर्थात् इस स्वत्व को हम खरीद सकते हैं, स्वीकार कर सकते हैं इत्यादि । प्राचीन तथा नव्य आचार्यों के बीच इस विषय में मतभेद है कि यह बाह्य इन्द्रियों से वेद्य है या नहीं। प्राचीन आचार्य प्रतिग्रहादि को एक विशेष मानस-ज्ञान के रूप में देखते हुए बहिरिन्द्रियों का अविषय मानते हैं। किन्तु नव्य आचार्य इसका खण्डन करते हैं कि प्रतिग्रहादि के नाश के अनन्तर भी स्वत्व का व्यवहार होता ही रहता है। दान से स्वत्वनाश और प्रतिग्रह से स्वत्व की उत्पत्ति का व्यवहार सर्वविदित है । 'स्वं पश्यामि' ( मैं अपने धन को, अधिकार को देखता हूँ ) इस प्रयोग से भी यही सिद्ध होता है। किसी के स्वत्व का साक्षात्कार तभी होता है जब हमें यह ज्ञान हो जाय कि किसी के यथेष्ट ( इच्छानुकूल ) विनियोग की योग्यता इसमें है । जयराम के अनुसार स्वत्व की अनुमिति ही होती है, साक्षात्कार नहीं । स्वत्व को अलौकिक विषयिता से युक्त उसके साक्षात्कार में उस प्रकार के विशेष दर्शन को हेतु मान लें तो कल्पनागौरव होगा ( कारकवाद, पृ० २७ ) । 'स्वं पश्यामि' का अनुव्यवसाय ( मानस ज्ञान, निश्चयात्मक प्रत्यक्ष ) तो 'सुरभिचन्दनं पश्यामि' के समान विशेषण अंश में लौकिक विषय से ही सम्बद्ध है।
सम्प्रदान के अन्य सूत्र इस प्रकार स्वत्व की वेद्यता पर प्राचीन ( बहिरिन्द्रिय से अवेद्य), नव्य ( उससे वेद्य ) तथा नव्यतर ( अनुमेय ) मतों के बीच नागेश नव्यमत के समर्थक हैं। नागेश तक सम्प्रदान के मुख्य सूत्र पर विशद विवेचन का इस रूप में पर्यवेक्षण किया गया। अब हम उसका विधान करनेवाले कुछ गौणसूत्रों की व्याख्या करें। इनमें आठ सूत्र विशुद्ध सम्प्रदान के हैं और एक में करण का विकल्प है।
(१) 'रुच्यर्थानां प्रीयमाणः' ( १।४।३३ )-दूसरे के द्वारा उत्पन्न की गयी ( अन्यकर्तृक ) अभिलाषा को रुचि कहते हैं । वैसे दीप्ति के अर्थ में भी रुच् धातु का प्रयोग होता है, किन्तु वह अर्थ यहाँ अभिमत नहीं है, इसलिए 'आदित्यो रोचते दिक्षु' में सम्प्रदान-संज्ञा नहीं होती ( तत्त्वबोधिनी, पृ० ४४१ तथा श० कौ० २, पृ० १२३ )। सूत्रार्थ है कि रुचि के अर्थ में आनेवाले धातुओं का प्रयोग होने पर जो अर्थ प्रीयमाण हो, जिसे प्रसन्न या तृप्त किया जाय उसे भी सम्प्रदान कहते हैं; जैसे'देवदत्ताय रोचते मोदकः' ( देवदत्त को मिष्टान्न तृप्ति देता है )। यहाँ देवदत्तस्थ
१. 'तत्साक्षात्कारे च तदीयस्वत्वव्याप्य-तदीययथेष्टविनियोग्यत्ववदिदमिति ज्ञानं हेतुः ।
-ल० म०, पृ० १२६५ २. काशिका, पृ० ६८; हेलाराज ३, पृ० ३३३ ।