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संस्कृत - व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
ऋण के विषय में दूसरी मान्यता है कि उपर्युक्त द्रव्यादान से उत्पन्न होने वाला, अधमर्ण में स्थित तथा परिशोधन से नष्ट होने योग्य अदृष्ट विशेष को ऋण कहते हैं । इस विषय में गदाधर का कथन है कि इसी अदृष्ट के कारण ऋणशोध किये बिना मरे लोगों को नरक-प्राप्ति होने की बात कही गयी है । दोनों मान्यताओं को मिलाकर ही गदाधर ' धारयति' का अर्थ करते हैं । इस दूसरी मान्यता के अनुसार भी हरि अधम नहीं होते । अदृष्ट का निषेधात्मक प्रयोजन गदाधर स्पष्ट कह चुके हैं । हरि को मोक्षरूप ऋण का परिशोधन नहीं करने पर भी नरकादि फल नहीं मिल सकता । यदि मिलने लगे तो पूर्णत्व पर आपत्ति होगी। इस प्रकार स्थिति अत्यन्त ही विषम है। हरि वास्तव में अधमर्ण हैं कि नहीं ? नागेश समाधान करते हैं कि मोक्ष चूंकि अवश्यदेय है, अतः उसे भी ऋण कहा जा सकता है २ ।
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( ४ ) ' स्पृहेरीप्सितः' ( १ | ४ | ३६ ) – स्पृह- धातु ( ईप्सा, चु० प० ) के प्रयोग में जो पदार्थ ईप्सित अर्थात् इच्छा का विषय हो वह भी सम्प्रदान है; जैसे – ' पुष्पेभ्यः स्पृहयति' । ईप्सित पुष्प सम्प्रदान हैं । यहाँ सम्प्रदान- संज्ञा के विधान के प्रयोजन को लेकर हेलाराज और हरदत्त में मतभेद है । हेलाराज का कथन है कि पुष्पों के ईप्सिततम होने से कर्मसंज्ञा हो सकती थी, साथ ही शेषत्व - विवक्षा होने पर षष्ठी की भी प्राप्ति थी । इन दोनों का निवारण करके यह सूत्र सम्प्रदान का विधान करता है । दूसरी ओर हरदत्त का कहना है कि शेषत्व-विवक्षा में षष्ठी होती ही है, जिससे 'कुमार्य इव कान्तस्य त्रस्यन्ति स्पृहयन्ति च' में षष्ठी का समर्थन होता है। हेलाराज ऐसी स्थिति में कहेंगे कि विभक्ति - विपरिणाम से 'कान्ताय स्पृहयन्ति' के रूप में व्याख्या करनी चाहिए ( प्रौढमनोरमा, पृ० ५२२ ) यह सम्प्रदान- संज्ञा ईप्सितमात्र में समझन गहिए । जब प्रकर्ष की विवक्षा हो ( ईप्सिततम ) तब तो परत्व के कारण कर्मसंज्ञ ही होगी - 'पुष्पाणि स्पृहयति' । इसीलिए तो कर्मत्व के कारण 'परस्परेण स्पृहणीयोभम्' तथा 'स्पृहणीयगुणैर्महात्मभिः' इत्यादि प्रयोग समर्थित होते हैं, जिनमें शोभा, गुण आदि स्पृह धातु के कर्म हैं, क्योंकि प्रकर्षविवक्षा है । हेलाराज यहाँ पर 'स्पृहणीय' शब्द को दानीय के समान सम्प्रदानार्थक अनीयर्-प्रत्यय से निष्पन्न मान सकते हैं (द्रष्टव्य - उपरिवत् ) । इनके अनुसार कर्म तथा शेषत्व के स्थान में सम्प्रदान ही होता है, जब कि हरदत्त तीनों सम्भावनाओं का विकल्प विवक्षा से ग्रहण करते हैं ।
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यह सही है कि 'स्पृहयति' इच्छामात्र का वाचक है । किन्तु इसका विशेष अर्थ दो प्रकार का होगा - ( १ ) इच्छा के अनुकूल मनः संयोगादि व्यापार का यह वाचक हो सकता है और ऐसी दशा में सम्प्रदान कारक होता है - 'पुष्पेभ्यः स्पृहयति । ( २ ) कभी-कभी फल से अवच्छिन्न इच्छा का भी यह वाचक हो सकता है और तब कर्म
१. ' तथा च द्रव्यान्तरदानाभ्युपगमपूर्व कप रदत्तद्रव्यादानजन्यादृष्टविशेषवत्त्वमेव धारयतेरर्थः ' ।
२. ‘आवश्यकदेयत्वेन तत्रापि ऋणव्यवहारात्' ।
- व्यु० वा०, पृ० २४३
-ल० म०, पृ० १२७२