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संस्कृत - व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
रही है किन्तु इच्छाविषयत्व की नहीं, क्योंकि देव किसी की इच्छा का विषय नहीं है । अतएव उद्देश्यादिपदों का शक्यतावच्छेदक उद्देश्यत्व पृथक् पदार्थ है । यह दूसरी बात है कि कहीं-कहीं इच्छाविषयत्व के समानाधिकरण पदार्थ के रूप में इसका प्रयोग हुआ है। इससे यह अर्थ नहीं निकलता कि दोनों एक ही हैं ।
उद्देश्य और इच्छाविपय में स्पष्ट भेद निरूपण को दृष्टि में रखकर ही नागेश उद्देश्य को सम्प्रदान चतुर्थी का अर्थ बतलाते हैं । उनके मत में क्रियामात्र के कर्म से सम्बन्ध बनाने के लिए जो कारक क्रिया में उद्देश्य हो वही सम्प्रदान है ( 'क्रियामात्रकर्मसम्बन्धाय क्रियायामुद्देश्यं यत्कारकं तत्त्वं सम्प्रदानत्वम्' - परमलघुमंजूषा, पृ० १८० ) । विप्राय गां ददाति' में दानक्रिया के कर्मरूप गौ के साथ सम्बन्ध बनाने के कारण विप्र उस क्रिया का उद्देश्य है । तदनुसार गौ और विप्र के बीच स्वस्वामिभाव सम्बन्ध है । इसी प्रकार 'चैत्रो मैत्राय वार्ताः कथयति' में मंत्र और वार्ता के बीच ज्ञेय-ज्ञातृ-भाव सम्बन्ध है । आनुषंगिक रूप से यह ज्ञातव्य है कि नागेश भी भाष्यकार के इस मत के समर्थक है कि सभी क्रियाओं में सम्प्रदान कारक हो सकता है, केवल दानक्रिया में ही नहीं । इसीलिए तो ' तदाचक्ष्वासुरेन्द्राय स च युक्तं करोतु यत् ' ( दुर्गासप्तशती, ५। १२९ ) इस प्रयोग में 'असुरेन्द्र' में सम्प्रदान-चतुर्थी है ।
सकर्मक के समान अकर्मक क्रिया का उद्देश्य भी सम्प्रदान हो सकता है; यथापत्ये शेते । इसमें फल तथा व्यापार की समान वृत्तिवाली शयन-क्रिया का उद्देश्य पति है, अतः उसे सम्प्रदान कहेंगे । बोध होता है - 'पत्युद्देश्यकं नायिकाकर्तृकं शयनम् । लघुमंजूषा इस प्रश्न पर कुछ अधिक विस्तार से विचार करती है । जैसे 'पिण्डीम् ' कहने से इसमें गम्यमान क्रिया पद ( आनय ) की अपेक्षा रखकर कारकतत्त्व (कर्म) दिखलायी पड़ता है, वैसे ही यहाँ शयन क्रिया के कर्म की भी कल्पना की जा सकती है । इस स्थिति में कर्मत्व संदर्शन, प्रार्थना और व्यवसाय से उत्पन्न होने वाली आरम्भ क्रिया के द्वारा निरूपित होता है । जब कोई किसी पदार्थ को अच्छी तरह से देखता है ( संदर्शन अर्थात् फलविषयक संकल्प करता है ) तब प्रार्थना ( फलोपाय की इच्छा ) करता है । तब व्यवसाय ( दृढ़ निश्चय ) होकर आरम्भक्रिया होती है । इन क्रियाओं का क्रमश: साध्य - साधनभाव हम देख चुके हैं । संदर्शनक्रिया का साधन क्रियासाध्य फल की अभिलाषा की योग्यता रखनेवाला ( विशिष्ट ) चैतन्य ही है । भाष्यकार के 'क्रियाग्रहण' विवेचन का अनुवाद करके नागेश यहाँ १. ‘सम्प्रदानचतुर्थ्यर्थः उद्देश्यः । तथा च ब्राह्मणोद्देश्यकं गोकर्मकं दानमिति - प० ल० म०, पृ० १८१
बोध: '
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२. तुलनीय ( वा० प० ३।७।१६-१७ ) - 'सन्दर्शनं प्रार्थनायां व्यवसाये त्वनन्तरा । व्यवसायस्तथारम्भे साधनत्वाय कल्पते ॥ पूर्वस्मिन्या क्रिया सैव परस्मिन् साधनं मता । सन्दर्शने तु चैतन्यं विशिष्टं साधनं विदुः ' ॥