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सम्प्रदान-कारक
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गोघ्नोऽतिथिः'- यहाँ दाश और गोघ्न दोनों ही सम्प्रदान हैं, जिसमें इनका निपातन हुआ है। यही नहीं, यह निपातन दानार्थक सम्प्रदान में ही हुआ है। यदि सम्प्रदान का कार्य तादर्थ्य से ही सम्पन्न होता तो इस सूत्र में उसी का उल्लेख करना अधिक संगत होता। यहाँ पतञ्जलि जो अप्रधान सम्प्रदान के लिए संज्ञाग्रहण मानते हैं. वह वस्तुतः तादर्थ्य का व्यापक अर्थ लेने के कारण है। इन पंक्तियों की व्याख्या में नागेश भी हेलाराज का समर्थन करते हैं कि दान का कर्म ( गवादि ) तो सम्प्रदानार्थक है, तथापि दानक्रिया सम्प्रदानार्थक नहीं होती इसलिए चतुर्थी विभक्तिवाले शब्द के अर्थ का अन्वय दान-क्रिया से नहीं हो सकेगा - इसी के लिए सम्प्रदानसंज्ञा का विधान है ( उद्योत, वहीं )। उदाहरणार्थ गाय उपाध्याय के लिए है किन्तु दानक्रिया तो वैसी नहीं है । तब दानक्रिया से उपाध्याय का अन्वय कैसे हो? इसका समाधान सम्प्रदान-संज्ञा से होता है जो तत्सम्प्रदानक दान के रूप में अन्वय करा देती है।
___ इस प्रकार इस मत में दानक्रिया की ही निष्पत्ति में सम्प्रदान होता है और यह क्रिया स्वत्वनिवृत्ति के साथ परस्वत्वापादन के रूप में प्रसिद्ध है। यहाँ एक आशंका होती है कि यह परस्वत्वापादन अपने स्वत्व के रहते ही होता है या उसके समाप्त हो जाने पर ? यदि अपने स्वत्व के रहते ही होता है तो दो व्यक्तियों के स्वत्वों की युगपत् स्थिति असम्भव होने के कारण असंगति होगी। दूसरी ओर, यदि अपने स्वत्व की निवृत्ति हो जाने पर कोई दूसरे को उसका स्वत्व समर्पित करे तो यह भी असम्भव है । जिस वस्तु को वह छोड़ चुका है उस पर उसका अधिकार ही कहां है कि वह दूसरे को समर्पित कर सके । ___ यह आशंका वस्तुत: दान का एकांगी अर्थ ग्रहण करने से ही उत्पन्न होती है। 'ददाति' क्रिया का उचित अर्थ है अपने स्वत्व के त्याग से आरम्भ करके परस्वत्व के आधान-पर्यन्त एक क्रिया-समूह । पूर्वार्ध कारण है, उत्तरार्ध कार्य । दोनों का संयुक्त प्रयोग 'दान' कहलाता है । केवल स्वत्व का परित्याग अथवा केवल परस्वत्वापादन दान नहीं है। दोनों के बीच अन्तराल पड़ने से उक्त दोष को अवसर मिल जाता है। सामुदायिक अर्थ लेने पर दोनों के बीच व्यवधान नहीं होता, जिससे दान का प्रयोजन सिद्ध होता है।
कुछ संशयात्मक उदाहरण अब हम सम्प्रदान के कतिपय संशयात्मक उदाहरणों को दान की इस कसौटी पर कसें
१. 'स्वस्वत्वे विद्यमाने हि परस्वत्वं न विद्यते । परित्यज्य प्रदानं चेदीदासीन्यान्न सिध्यति' ।
--पुरुषोत्तम, कारकचक्र, पृ० ११० १७सं.