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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्वानुशीलन
( १ ) रजकाय वस्त्रं ददाति - रजक को प्रलाक्षनार्थं वस्त्र प्रदान किया जाता है । इस प्रदान में स्वत्वनिवृत्ति-पूर्वक परस्वत्वापादन का बोध नहीं रहने से विधिवत् त्याग की औपचारिकता का निर्वाह नहीं होता, अतः रजक सम्प्रदान नहीं हो सकता । अतः उक्त प्रयोग को असाधु मानते हुए प्रायः सभी आचार्य यहाँ ' ददाति' का गौण प्रयोग स्वीकार करते हैं । हेलाराज का कथन है कि त्याग ऐसा हो जिसमें त्याग करने वाला व्यक्ति उस द्रव्य से अपनी ममता समाप्त कर दे तथा सम्प्रदान उसका उपयोग स्वेच्छा से कर सके । ऐसी बात यहाँ नहीं है । इसलिए सम्बन्ध - सामान्य से यहाँ षष्ठी विभक्ति ही उचित है - ' रजकस्य वस्त्रं ददाति' । यही बात 'घ्नतः पृष्ठं ददाति' ( मारने वाले व्यक्ति की ओर पीठ कर देता है ) में भी है (हेलाराज ३, पृ० ३३२) ।
किन्तु भाष्यकार के मत में रजक सम्प्रदान हो सकता है, क्योंकि उनके अनुसार सम्प्रदान अन्वर्थसंज्ञा नहीं । अतः दानक्रिया के कर्म के द्वारा अभिसम्बद्ध करने में स्वत्वनिवृत्ति कोई अनिवार्य तत्त्व नहीं है । 'रजकाय' बिल्कुल शुद्ध प्रयोग है । नागेश यहाँ 'ददाति' का अर्थ ' अधीनीकरण' ( कुछ समय के लिए मलनाशार्थं प्रदान करना ) मानकर ऐसे प्रयोग में कोई आपत्ति नहीं देखते ' । ' रजकस्य वस्त्रं ददाति' का प्रयोग शेष- षष्ठी से समर्थनीय है । यह नहीं कि रजक के सम्प्रदानत्व पर किसी प्रकार की आपत्ति है । रजक के सम्प्रदानत्व के विषय में पतञ्जलि तथा नागेश की सहमति विशेष ध्यान का विषय है ।
( २ ) न शूद्राय मतिं दद्यात् - इस प्रयोग में भी दानक्रिया की मुख्यार्थता एवं गौणार्थता के प्रश्न पर मतभेद है। हेलाराज का विचार है कि मति-सन्तान ( बुद्धि
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राशि का अपक्रमण ( पार्थक्य ) होने से बुद्धि का उपयोग दूसरे व्यक्ति के लिए निर्विवाद रूप से सिद्ध है । ज्ञान-प्रदान करने की क्रिया में ज्ञान देनेवाले व्यक्ति देय ज्ञान पर से अपनी ममता का आवरण पृथक् करके सम्प्रदान को उस ज्ञान के उपयोग का पूरा अधिकार दे देता है । इसीलिए तो पार्थक्य का बोध धारा प्रवाह के रूप में होने से 'उपाध्यायादागमयति' जैसे प्रयोगों में अपादान -संज्ञा की सिद्धि होती है । इसमें उपाध्याय अपादान है तथा बुद्धिसमूह का एकदेश आंशिक रूप से परित्यक्त होता है । फलतः स्वत्वनिवृत्ति - क्रिया के अंग के रूप में परस्वत्वापादन-क्रिया ( उपात्तविषय अपादान का रूप ) का बोध होने से 'ददाति' की औपचारिकता पूरी हो जाती है और यह क्रिया मुख्यार्थ में ही रहती है । शूद्र की ( निषेधमूलक ) सम्प्रदानता में इसलिए कोई असंगति नहीं है क्योंकि स्वत्वनिवृत्ति तथा परस्वत्वापादन का सम्मिलित अर्थबोध होता है । दूसरे लोगों का कथन है कि यहाँ दातृ सम्बन्ध का नियमतः ज्ञान नहीं होता क्योंकि ज्ञानदाता अपने से सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद नहीं कर लेता । इसलिए वे लोग ' ददाति' का गौणप्रयोग मानते हैं ( हेलाराज, वहीं ) ।
१. इष्टव्य प० ल० म०, ज्योत्स्ना, पृ० १८१ ।