________________
२४०
संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
रावण को अवैध स्वामी होने के कारण सीता को न बेचने का अधिकार है न प्रदान का । प्रदान गौण अर्थ में ही है तथा रावण का स्वत्व विवक्षित है, वास्तविक नहीं।
(५) खण्डिकोपाध्यायः शिष्याय चपेटां ददाति-भाष्य के इस प्रयोग में हेलाराज दान का मुख्यार्थ मानते हैं । वास्तव में यहाँ चपेटा ( थप्पड़ ) पर स्वामित्व की वास्तविक सत्ता प्रतीत नहीं होती, किन्तु शिष्य का उपकार करने का उद्देश्य विद्यमान रहने से चपेटा मारने वाले गुरु में उसका स्वामित्व किसी-न-किसी रूप में उद्दिष्ट ही है । चपेटा शिष्य में तत्काल तो प्रतिकूल वेदना उत्पन्न करती है ( दुःखद है ), अतः उसका तात्कालिक उपयोग तो शिष्य के लिए नहीं है, किन्तु विद्याभ्यास में तल्लीनता-रूप दूरवर्ती फल के द्वारा चपेटा का परोपयोग निःसन्दिग्ध है। चपेटा सहने पर ही शास्त्राभ्यास की योग्यता या प्रवृत्ति मिलती है। अतः यहाँ भी स्वत्वनिवृत्ति और परस्वत्वापादन के रूप में दान का अर्थ सुव्यवस्थित है ।
नव्यन्याय में सम्प्रदान-विवेचन : उद्देश्यत्व पाणिनि के द्वारा 'अभिप्रैति' के प्रयोग से नव्यन्याय तथा तत्प्रभाविक ग्रन्थों में सम्प्रदान का अर्थ उद्देश्यत्व माना गया है । किन्तु उद्देश्यमात्र को सम्प्रदान नहीं कहा जा सकता, इसलिए कौण्डभट्ट उद्देश्यविशेष को सम्प्रदान कहते हैं । इस विशेष का निर्वचन भवानन्द के शब्दों में इस प्रकार है-'तक्रियाकारणीभूत-कर्मजन्यफलभागित्वेन उद्देश्यत्वं सम्प्रदानत्वम्' । तदनुसार किसी क्रिया के ( दानादि के ) कारण के रूप में जो गवादि कर्म हो उससे उत्पन्न होने वाले फल का अधिकारी रहते हुए जो उद्देश्य हो वही सम्प्रदान है । यही उद्देश्य की विशिष्टता है। इस लक्षण में स्थित 'तक्रियाकारणीभूत' विशेषण 'चैत्रो ग्रामं गच्छति' जैसे उदाहरणों में चैत्रादि के सम् नित्व का वारण करता है। यहाँ गमन-क्रिया के कर्म ( ग्राम ) से उत्पन्न होनेवाले २, वादि फलों के अधिकारी ( उपभोक्ता ) के रूप में चैत्र उद्देश्य तो है, किन्तु ग्राम गमन-क्रिया का कारण नहीं हो सकता। गमन के एकदेश संयोग का वह कारण हो सकता है, गमनमात्र का नहीं। जहाँ कर्म क्रिया का कारणीभूत नहीं हो वहाँ सम्प्रदान नहीं हो सकता। 'विप्राय गां ददाति', 'वृक्षेभ्यो जलं सिञ्चति' इत्यादि उदाहरणों में लक्षण का समन्वय पूर्णतः हो जाता है क्योंकि दान, सेकादि क्रियाओं का कारण गो, जलादि कर्म है । इस कर्म से उत्पन्न फल के अधिकारी के रूप में बिप्र, वृक्षादि उद्देश्य हैं, अतः सम्प्रदान हैं ।
१. गुरुपद हाल्दार, व्या० द० इति०, पृ० ३०२ । २. हेलाराज ३, पृ० ३३३ । ३. 'उद्देश्यः सम्प्रदानचतुर्थ्यर्थः' ।
-वै० भू०, पृ० ११२ ४. 'ग्रामं गच्छतीत्यत्र गमनकर्मजन्यफलभागित्वेनोद्देश्यस्य चैत्रादौ सत्त्वात्, चैत्रादेस्तक्रियायां सम्प्रदानत्वाभावात् तद्वारणाय कारणीभूतेति'।
-कारकचक्र, पृ० ५५-६