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अपने से सम्बद्ध होनेवाले कर्म का तिरस्कार नहीं करते और न ही वे उसका त्याग करने वाले व्यक्ति को 'दान मत करो' ऐसा कहते हैं । यदि निराकरण करते तो त्याग सम्पन्न नहीं होता । निराकरण होने पर परस्वत्वापादन नहीं होता और मना करने पर स्वत्वनिवृत्ति नहीं होती । हेलाराज अनुमति को भी इसी में अन्तर्भूत करते हैं । इसीलिए उनके अनुसार उपाध्याय की अनुमति भी इस सम्प्रदान- व्यापार में उपलब्ध होती है ।
सम्प्रदान कारक
किन्तु हेलाराज की यह व्याख्या - विधि भ्रामक है । स्पष्टतः हरि ने तीन पृथक् कारण रखे हैं, जिन्हें हेलाराज - ( १ ) अनिराकरण - सह - अनुमति तथा ( २ ) प्रेरणा के द्वैविध्य में स्वीकृत कर पृथक् दिशा में अग्रसर होते हैं । इसका संशोधन कारकचक्र, शब्द कौस्तुभ, भूषणादि ग्रन्थों में हुआ है । इनके अनुसार अनिराकर्तृ सम्प्रदान वह है जो न दान की प्रार्थना ( याचना ) करे, न अनुमति दे और न इस क्रिया का निराकरण करे जैसे - सूर्यायायं ददाति । निर्जीव, मूक तथा अमूर्त सम्प्रदान इसी भेद में लिये जा सकते हैं ।
( २ ) प्रेरणा - जब कर्ता को दान की प्रेरणा सम्प्रदान से मिले या याचनापूर्वक दान- क्रिया का प्रवर्तन हो ? तब भी त्याग में सहायक होने के कारण त्याग का निमित्त सम्प्रदान कारक होता है, जैसे- 'विप्राय गां ददाति' । यहाँ प्रतीति होती है कि विप्र गोदान के लिए अपने यजमान को प्रेरित करता है । इसी प्रकार 'भिक्षवे भिक्षां ददाति' में याचना के कारण त्याग सम्पन्न होता है । इस सम्प्रदान को 'प्रेरक' कहते हैं ।
(३) अनुमति - जब कर्ता के द्वारा किये गये त्याग की प्रेरणा नहीं हो, किन्तु त्याग के पश्चात् सम्प्रदान उसे स्वीकार कर ले और यह भी कहे कि अच्छा किया, तब उक्त त्याग का सम्पादन अनुमति से जाना जाता है । यथा - विप्राय गां ददाति । अनुमति के द्वारा त्याग सम्पन्न होने पर सम्प्रदान को 'अनुमन्तृ ' कहते हैं । दिये गये पदार्थ को स्वीकार कर लेने पर अनुमति तथा अस्वीकार नहीं करने पर अनिराकरण समझा जाता है । इस प्रकार दोनों को एकरूप समझने का भ्रम होता है । किन्तु दूसरे दृष्टिकोण से विचार करने पर दोनों में भेद का प्रकाशन होता है । अनुमति में भावरूप स्वीकृति होती है, यह त्याग के पूर्व ही निर्धारित होती है । दूसरी ओर अनिराकरण की प्रतीति स्वत्वनिवृत्ति या त्याग के पश्चात् होती है तथा वह निषेध रूप क्रिया है ।
अनिराकरण तथा परस्वत्वापादन में विरोध की कल्पना नहीं करनी चाहिए । यह निश्चित है कि दोनों स्वत्वनिवृत्ति के बाद ही सम्भव है । परस्वत्वापादन में तभी
१. 'नात्र सूर्यः प्रार्थयते, न वानुमन्यते, न च निराकरोति' ।
- श० कौ० २, पृ० १२२ २. ' याच्ञापूर्वके च दाने प्रेरणमभ्यर्थनया दाने प्रवर्तनमपि सम्प्रदानव्यापारः ।
- हेलाराज ३, पृ० ३३२