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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
पर-विभक्ति ही होनी चाहिए। यह पूर्वपक्ष उठाकर दीक्षित कहते हैं कि कार्यकाल पक्ष में 'कर्मणि द्वितीया' (पा० २।३।२ ) से जिसकी उपस्थिति होती है वह अनवकाश है, अतः द्वितीया होगी ही । अब कोई कहे कि 'दीव्यन्तेऽक्षाः' में कर्म के अभिहित होने पर भी करणत्व के अनिभिहित होने से करण में तृतीया हो जाय, अथवा 'देवना अक्षाः' में ल्युट के द्वारा करण का अभिधान होने पर भी कर्म अनभिहित होने से द्वितीया हो जाय - तो हम कहेंगे कि यहाँ एक ही शक्ति दोनों संज्ञाओं के उपयुक्त हो सकती है । इस प्रकार दोनों स्थितियों में अभिधान ही है, अनभिधान नहीं ( शब्दकौस्तुभ २, पृ० १२६.२७ ), नागेश इस उत्तर का प्रत्याख्यान करते हैं कि एक ही शक्ति दो-दो संज्ञाओं के उपयोग में आ सकती है। कर्मादि पद कर्मत्वादि विविध शक्तियों के रूप में बोध कराते हैं, अतः दोनों में भेद करना ही उचित है ।
करण के भेद करण का विभाजन पाणिनीयेतर सम्प्रदायों में हुआ है, जो मुख्यतः सांख्यदर्शन में निरूपित करण की कल्पना पर आश्रित है । दर्शनों में करण इन्द्रियार्थक है। व्याकरण में उस करण-कल्पना का इतना ही उपयोग है कि दर्शनशास्त्रोक्त सभी करणअन्तःकरण, ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय-विषयोपलब्धि के प्रति साधकतम हैं। वहाँ करण का निर्वचन है-कर्ता जिससे पुरुषार्थ का साधन करे। जिस प्रकार कर्ता छेदनादि पुरुषार्थों का सम्पादन दात्रादि से करता है, उसी प्रकार वह इन्द्रियों की सहायता से उपलब्धि-रूप पुरुषार्थ का सम्पादन करता है.। इस प्रकार दार्शनिक करण व्याकरण के करण से भिन्न नहीं।
(१) सांख्य-दर्शन में पहले दो करण माने गये हैं - अन्तःकरण और बाह्यकरण · अन्तःकरण तीन हैं—बुद्धि, अहंकार तथा मन । बाह्यकरण दस हैं-पांच ज्ञानेन्द्रि " ( चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, रसना, त्वचा ) तथा पाँच कर्मेन्द्रियाँ ( वाक्, पाणि, पाद, पायु, उपस्थ )२। इनमें बाह्यकरणों का व्यापार केवल वर्तमान काल तक सीमित है, जब कि अन्त करण या आभ्यन्तर करण तीनों कालों में वृत्ति रखते हैं ।
वेदान्तियों के मत में चार आभ्यन्तर करण होते हैं, जैसा कि वेदान्तपरिभाषा ( पृ० ३२ ) में विषयों के साथ उनका उल्लेख है
१. 'एकव शक्तिः संज्ञाद्वयोपयोगिनीति तु चिन्त्यम् । कर्मादिपदानां कर्मत्वादितत्तच्छक्तिरूपेण बोधकतया तयोर्भेदस्यवौचित्यादिति मञ्जूषायां विस्तरः'।।
-ल० श० शे०, पृ० ४३५ २. सांख्यकारिका २६ । ३. वहीं, कारिका ३३
'अन्तःकरणं त्रिविधं दशधा बाह्यं त्रयस्य विषयाख्यम् । साम्प्रतकालं बाह्यं त्रिकालमाभ्यन्तरं करणम्' ।