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करण-कारक
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अभीष्ट अर्थ पर पहुँचा जा सकता है । मीमांसक यही करते भी हैं । नागेश कहते हैं कि यह द्योतित करता है कि करण का अन्वय व्यापार में ही होता है, क्योंकि करण के साथ धात्वर्थ व्यापार के अन्वय में अनुपपत्ति होने से ही लक्षणा का प्रसंग आता है, धात्वर्थ फलांश के साथ तो करणरूप में अन्वय ठीक ही हो जाता है, जिससे लक्षणा प्रसक्त नहीं होती। इसीलिए 'सोमेन यजेत' में मीमांसक लोग छान्दस मत्वर्थ-लक्षणा मानकर काम चलाते हैं। यदि व्यापार में ही करण का अन्वय किया जाय तो फल का करण के रूप में अन्वय हो जायगा, जिससे 'ज्योतिष्टोमेन यजेत' यह कर्मस्वरूपमात्र का बोधक होने से उत्पत्ति-विधि है, उसी में विहित करण के द्वारा अवरुद्ध हो जाने से पुनः दूसरे करण के अन्वय की योग्यता नहीं रहेगी और अन्ततः लक्षणा आवश्यक हो जायेगी । छान्दस लक्षणा की कोई आवश्यकता नहीं।
नागेश इस विषय में अपना मत देते हैं कि फल में भी यदि करण का अन्वय किया जाय तो फलांश में वैरूप्य उत्पन्न हो जायगा, क्योंकि एक ओर तो भावना से निरूपित करण का रूप उसे मिलेगा और दूसरी ओर अपने करण से निरूपित साध्य भी वही होगा--ये दोनों स्थितियाँ युगपत् उपस्थित होंगी, अतः अन्वयानुपपत्तिजन्य लक्षणा का आश्रय अनिवार्य है। इस प्रकार करण के अन्वय को लेकर नागेश मीमांसकों के विधिवाक्यों की विधिवत् मीमांसा करते हैं। करणतृतीया पर उनका वक्तव्य इसी में सीमित है।
यद्यपि करण का मुख्य सूत्र एक ही है तथापि 'पाणिनि दो अन्य सूत्रों में भी करण-संज्ञा का आंशिक विधान करते हैं । प्रथम सूत्र में कर्म तथा दूसरे में सम्प्रदान करण के साथ विकल्पित है। दूसरे का निरूपण अगले अध्याय में होगा। कर्मकारक के विकल्प का सूत्र है-'दिवः कर्म च' ( पा० सु० १।४।४३ )। दिव्-धातु ( क्रीड़ा) के प्रयोग में जो साधकतम कारक होता है उसे करण और कर्म दोनों संज्ञाएँ विकल्प से होती हैं; जैसे-अक्षान् दीव्यति, अक्षर्दीव्यति । इसी विकल्प के कारण 'मनसा देवः' ( मनसा दीव्यति-कर्मण्यण् ) की सिद्धि होती है। 'मनसः संज्ञायाम्' (पा० ६।३।४) सूत्र से करण-तृतीया का अलुक् होता है। इसका दूसरा फल है-'अक्षर्देवयते यज्ञदत्तेन'। इसमें सकर्मक क्रिया होने से अण्यन्तावस्था के कर्ता ( यज्ञदत्त ) को ण्यन्तावस्था में कर्मसंज्ञा नहीं हुई । पुनः 'अणावकर्मकात्' ( १।३।८८ ) से होने वाला परस्मैपद भी नहीं हुआ, क्योंकि कर्मविकल्प के कारण यह सकर्मक क्रिया है।
यहाँ कहा जा सकता है कि 'अक्षान् दीव्यति' में परत्व के कारण तृतीया विभक्ति ही न्याय्य है । दोनों संज्ञाओं के अवकाश-स्थल पृथक-पृथक् है। करण का अवकाश है-'देवना अक्षा:' ( वे पासे जिनसे खेल हो ), जिसमें करण में ल्युट हुआ है । दूसरी
ओर कर्म का अवकाश है...'दीव्यते अक्षाः' ( पासे खेले जा रहे हैं ), यहाँ कर्मवाच्य में यक और आत्मनेपद हुआ है। 'अक्षान्' में तो दोनों संज्ञाओं के प्रयोग के प्रसंग में
१. 'फलेऽप्यन्वये युगपत्फलांशस्य भावनानिरूपितं करणत्वं स्वकरणनिरूपितं चेति वैरूप्यं स्यादिति साऽऽवश्यकीत्यन्ये' ।
-ल० म०, पृ० १२५३ १६.