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वत्ता सिद्ध करने के लिए जीवात्मा को कर्ता मानना अनिवार्य है । पुनः यह कहा गया है कि यदि जीव कर्ता न हो, बुद्धि या विज्ञान कर्ता बन जाय तो शक्ति का विपर्यय हो जायगा ( 'शक्तिविपर्ययात्' २।३।३८ ) अर्थात् बुद्धि की करण-शक्ति नष्ट होकर उसमें कर्तृत्व-शक्ति आ जायगी, ऐसा होने से बुद्धि ही 'अहम्' के ज्ञान का विषय हो जायगी । यदि बुद्धि कर्ता हो जाय तो उसकी प्रवृत्ति के लिए दूसरे करण की आवश्यकता होगी, क्योंकि समर्थ होने पर भी करण को लेकर ही कर्ता की प्रवृत्ति देखी जाती है । किसी भी स्थिति में बुद्धि का कर्तृत्व वांछनीय नहीं । यदि उपर्युक्त विवक्षा का नियम स्वीकार करते हैं तो करण के कर्तृत्व या उसी प्रकार के अन्य विपर्यय में आपत्ति नहीं होनी चाहिए - अतः विवक्षा नियम तथा शांकरभाष्य में विरोध-सा लगता है ।
करण-कारक
किन्तु बात ऐसी नहीं है । सूत्रकार या भाष्यकार का यह आशय कदापि नहीं है कि विवक्षा से सभी कारकों को करणत्व नहीं होगा । प्रत्युत वे यह कहते हैं कि बुद्धि के परिणामभूत अन्तःकरण में जो निश्चित ( क्लृप्त ) करणत्व है उसकी क्षति हो जायगी तथा अनिश्चित कर्तृशक्ति का प्रवेश हो जायगा । किसी श्रुतिवाक्य में करण के रूप में बुद्धि-परिणाम ( अन्तःकरण ) निश्चित हो और दूसरे में कर्तृत्वविवक्षा हो तो भी कोई हानि नहीं । विरोध तो तब होता है जब दोनों की युगपत् विवक्षा करें । किन्तु वास्तव में यथा च तक्षोभयथा' ( ब्र० सू० २।३।४० ) सूत्र के भाष्य में शंकर ने स्पष्ट कर दिया है कि जीव का कर्तृत्व स्वाभाविक नहीं है, प्रत्युत वह औपाधिक है । यदि स्वाभाविक कर्तृत्व होता तो मुक्ति नहीं होती, क्योंकि कर्तृत्व दुःखरूप होता है । जैसे उष्णता से अग्नि का वियोग सम्भव नहीं उसी प्रकार जीवात्मा का वियोग भी स्वाभाविक कर्तृत्व ( दुःख ) से नहीं हो सकता था । तक्षा ( बढ़ई ) बसूला आदि साधनों को ( जो करण हैं ) हाथ में लिये रहने पर दुःखी होता है, क्योंकि तब वह कर्ता बना रहता है; यदि वह उन करणों को छोड़कर बैठा रहे तो सुखी होता है, क्योंकि तब उसमें कर्तृत्व नहीं रहता । इससे स्पष्ट है कि कर्तृत्व औपाधिक होता है, करणादि के संसर्ग में आने से ही कोई कर्ता कहलाता है । अतएव उपर्युक्त शक्ति-विपर्यय की बात इस तथ्य का द्योतन करती है कि बुद्धि को गौण स्थान प्रदान किया गया है, उसमें कर्तृत्व-शक्ति का अभाव दिखलाना अभिप्रेत है । तक्षा मूलतः कर्ता नहीं है ( करण के संसर्ग में आने पर ही कर्ता होता है ), उसी प्रकार जीव भी मूलतः कर्ता नहीं । शरीर, इन्द्रिय, बुद्धि के संसर्ग से इसमें औपाधिक कर्तृत्व आता है । विवक्षा से ये भी कर्ता हो सकते हैं, किन्तु जब जीव में ही कर्तृत्व नहीं तब इनके
१. ‘यदि पुनविज्ञानशब्दवाच्या बुद्धिरेव कर्त्री स्यात् ततः शक्तिविपर्ययः स्यात् । करणशक्तिर्बुद्धेर्हीयेत कर्तृशक्तिरापद्येत । सत्यां च बुद्धेः कर्तृशक्तौ तस्या एवाहम्प्रत्ययविषयत्वमभ्युपगन्तव्यम्' । - शांकरभाष्य २।३।३८ २. 'शक्तोऽपि हि सन् कर्ता करणमुपादाय क्रियासु प्रवर्तमानो दृश्यते' । - वहीं