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प्रधानतया प्रतीत हो रही है, फिर भी वस्तु की सामर्थ्य के कारण अध्ययन हेतु के अधीन है, क्योंकि अध्ययन के लिए ही निवास अभिप्रेत है। दूसरे शब्दों में अध्ययन साध्य (प्रधान) तथा निवास साधन ( अप्रधान ) है । गौण वस्तु पर प्रधान वस्तु आश्रित नहीं होती है कि अध्ययन के अभाव में निवास की निष्पत्ति के लिए कुछ दूसरा पदार्थ उसके स्थान पर बैठा दें। यदि दूसरी वस्तु उसके स्थान पर बैठाते हैं तो वही मुख्य हेतु हो जायगी; जैसे -- भृत्या वसति ( जीविकार्थ रहता है ) । निष्कर्षतः अध्ययन में हेतु तृतीया ही है । सव्यापार अध्ययन के द्वारा वासक्रिया की निर्वृत्ति नहीं हो रही है कि इसे करण मानें; इसके विपरीत निवास-क्रिया का ही साध्य या लक्ष्य अध्ययन है। अतः व्यापारहीन केवल योग्यता से उद्देश्यरूप में वर्तमान अध्ययन निवास का हेतु है । यही अध्ययन यदि व्यापारयुक्त तथा निवास के प्रति अनुकूल होने के रूप में विवक्षित हो तो प्रयोजक कर्ता या शास्त्रीय हेतु भी हो जा सकता है;
जैसे -अध्ययनं वासयति ( अध्ययन उसे यहाँ ठहराये हुआ है ) ।
करण-कारक
हेतु और तादर्थ्य में भेद
इस विवेचन से हेतु और तादर्थ्य में भ्रम होने की आशंका है, जिसका निराकरण इस कारिका में हुआ है
'प्रातिलोम्यानुलोम्याभ्यां हेतुरर्थस्य साधकः । तादर्थ्य मानुलोम्येन हेतुत्वानुगतं तु तत्' ॥
- वा० प० ३।७।२७
हेतु अपने अर्थ की सिद्धि दोनों प्रकार से करता है - अनुलोम-विधि से ( दूसरों के संसर्ग से कार्य को उपचिततर करते हुए ) तथा प्रतिलोम - विधि से ( स्वयं क्षीण होते हुए क्षीणतर कार्य उत्पन्न करते हुए ) । तादर्थ्य अनुलोम-विधि का सहारा लेता है तथा हेतुत्व से अनुगत एक प्रकार का हेतु ही है । 'कुण्डलाय हिरण्यम्' इसका उदाहरण है, जिसमें कुण्डल उपकार्य अथवा साध्य है, जब कि हिरण्य उपकारक या साधक है । 'तस्मै इदम्' का समास करके 'तदर्थम्' होता है और इसमें भाववाचक ष्यञ् प्रत्यय लगाकर 'तादर्थ्य' शब्द बनता है । उपकार्य और उपकारक के बीच कार्यकारणसम्बन्ध का अर्थ है – उद्भूत रूप ( जिसका रूप नयनगोचर हो ) । ' यह उसमें उद्भूत है' यहाँ करण उपकारक प्रतीत होता है और कार्यकारण सम्बन्ध के उत्पन्न होने पर जो चतुर्थी होती है वह कार्यवाचक शब्द को ही । कारणवाचक से तृतीया नहीं होती ।
१. 'अध्ययनेन वसतीति तु वसतिक्रियाऽऽख्यातात्प्राधान्येनापि प्रतीयमाना वस्तुसामर्थ्यादध्ययनाख्य हेतुपरतन्त्रा' । - हेलाराज, पृ० १५६-५७ २. ' न ह्यध्ययनेन व्यापाराविष्टेन वासो निर्वर्त्यते, अपि तु वासस्याध्ययनमेव सम्पाद्यं प्रधानमिति निर्व्यापारं योग्यतामात्रेणोद्देश्यमध्ययनं वासस्य हेतुः' ।
- हेलाराज, वहीं