________________
सम्प्रदान-कारक
२२७
अधिकार केवल वैदिक भाषा में है, संस्कृत में नहीं' । 'सह सुपा' (२।१।४ ) की व्याख्या में इस विषय पर दीक्षित कहते हैं कि तिङन्त का समास केवल वेद में होता है, क्योंकि 'अनुव्यचलत्' इत्यादि उदाहरणों में, जहाँ समास होने के कारण प्रातिपदिक हो जाने से संस्कृत-भाषा में सुप्-प्रत्ययों की प्राप्ति अनिवार्य हो जाती है, छान्दस व्यत्यय का आश्रय लेकर ही सुप् के लोप का समर्थन किया जा सकता है। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो 'पर्यभूषयत्' जैसे हलन्त उदाहरणों में सु-प्रत्यय का ( क्योंकि सामान्यरूप से एकवचन का सु-प्रत्यय ही समासों के बाद लगाया जाता है) लोप हम 'हल्याब्भ्यो दीर्घात्.' ( पा० ६।१।६८ ) के द्वारा भले ही कर सकते हैं, किन्तु 'यत्प्रकरोति' इत्यादि में लोप का कोई कारण नहीं होगा, 'सु' को श्रूयमाण ही रहना होगा। हाँ, एक उपाय है । समास को नपुंसक लिंग मानकर 'स्वमोर्नपुंसकात्' ( पा० ७।१।२३ ) से सु का लोप करें, किन्तु नपुंसकलिंग का आश्रय लेने से 'यत्प्रकुरुते' इत्यादि में 'ह्रस्वो नपुंसके प्रातिपदिकस्य' ( पा० १।२।४७ ) से ह्रस्व की प्रसक्ति का भी भय है। यही नहीं, 'यत्प्रकुर्वीरन्' में तो 'नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य' ( ८।२।७ ) के द्वारा न के लोप का प्रसंग होगा । इसलिए दीक्षित के अनुसार 'प्रभवति' इत्यादि काव्यगत प्रयोगों में उपसर्ग पृथक् पद है, समास का अवयव नहीं। अत: 'अभिप्रेति' में भी पृथक् पद हैं।
पतञ्जलि इसमें 'अभि' तथा 'प्र' इन दो उपसर्गों की अनिवार्यता सिद्ध करते हैं । इनके अभाव में 'कर्मणा यमेति स सम्प्रदानम्' मात्र रहने से केवल वर्तमान काल के उदाहरण ही दिये जा सकते हैं, सन्निहित पदार्थ में ही सम्प्रदान-संज्ञा हो सकती थी- 'उपाध्यायाय गां ददाति' । 'एति' क्रिया वर्तमान का बोध कराती है । इसमें उक्त उपसर्गों का उपादान होने पर ही काल-विषयक सीमा समाप्त हो जाती है, अतः अतीत एवं भविष्यत् कालों में भी सम्प्रदान-संज्ञा हो सकती है । ध्यातव्य है कि वचन की अविवक्षा होने पर भी उसका बोध हो ही जाता है, जिससे 'विप्रेभ्यो गाः ददाति' में सम्प्रदान की व्यवस्था होती है । 'अभि का अर्थ आभिमुख्य ( उद्देश्य ) है, जिससे भविष्यत् का बोध होता है और 'प्र' आरम्भार्थक है । अतएव जिस पदार्थ को कर्म के द्वारा भूत, वर्तमान या भविष्यत् काल में भी सम्बद्ध करने का उद्देश्य सूचित हो, वह सम्प्रदान है।
क्रियासम्बन्ध से सम्प्रदान कात्यायन पाणिनि के इस सूत्र में क्रिया के ग्रहण का प्रस्ताव करते हैं कि कर्म के अतिरिक्त क्रिया से भी सम्बध्यमान पदार्थ को सम्प्रदान की संज्ञा दी जाय । स्पष्टतः
१. द्रष्टव्य-श० को० २, पृ० १२० । २. श० कौ० २, पृ० १६० तथा तत्त्वबोधिनी, पृ० ४४० ।
३. 'तेन यं चाभिप्रेति, यं च.. ष्यति, यं चाभिप्रागाद्-आभिमुख्यमाने सर्वत्र सिद्धं भवति' ( भाष्य २, पृ० २५६ )। ( उद्योत )-'कर्मणा करणभूतेन क्रियारम्भे पमुद्दिशतीत्यर्थः । स बोद्देशः सर्वत्रास्तीति भावः' ।